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अपनी बात ) भी विशेषता है कि आत्मा की पर को जानने की प्रक्रिया भी ज्ञान के पर सन्मुखतापूर्वक नहीं होती, वरन् स्वसन्मुखतापूर्वक ही होता है। ज्ञान का स्वभाव स्वपर प्रकाशी होने के कारण, उस ज्ञान की पर्याय में तत्समय की योग्यतानुसार, जिन ज्ञेयों का आकार प्रतिबिंबित होता है, उन ज्ञेयों के आकार रूप परिणमित अपने ज्ञानाकारों के जानने के समय ज्ञान जान लेता है। पर सन्मुख होकर पर को जानने का आत्मा के ज्ञान का स्वभाव ही नहीं है। लेकिन ऐसे ज्ञानस्वभाव की श्रद्धा नहीं होने से मैं उन ज्ञेयों को जानने के समय ज्ञान को पर सन्मुख रखते हुये, उन ज्ञेय पदार्थों में अच्छे बुरे की कल्पना करके, उनको प्राप्त करने अथवा हटाने की दौड़ लगाता हुआ निरंतर दुःखी दुःखी ही बना रहता हूँ।” -
“अरहंत भगवान् की आत्मा ने उपर्युक्त मिथ्या मान्यताओं का अभाव कर स्व में तन्मय हो जाने से, उनका ज्ञान जगत् के समस्त ज्ञेयों। को एक साथ जानने पर भी, उनके प्रति किंचित् भी आकर्षित नहीं होता। इसही कारण किसी को भी प्राप्त करने व छोड़ने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। फलस्वरूप निरंतर निराकुलतारूपी परमानंद के उपभोक्ता बने रहते हैं।” इसही को पं. दौलतारामजी ने कहा है कि :
सकलज्ञेय ज्ञायकतदपि, निजानंद रसलीन।
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहस विहीन ॥ भगवान् अरहंत भी पहले हमारे समान अज्ञानी रागी द्वेषी आत्मा ही थे, उनने भी उपरोक्त मिथ्या मान्यताओं को दूरकर यथार्थ मार्ग अपनाकर अरहंत दशा प्राप्त की। उस ही मार्ग को समझने के उपाय, प्रमाण नय आदि द्वारा उक्त मोक्षमार्ग को समझने की विधि इस भाग में बतायी गयी है। द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक नय का स्वरूप, उनके प्रयोग की विधि एवं उनकी उपयोगिता इसी प्रकार निश्चय-व्यवहारनय का स्वरूप, उनके प्रयोग की विधि एवं उपयोगिता की विस्तार से चर्चा करके द्रव्यदृष्टि एवं पर्यायदृष्टि के विषय एवं पर्यायार्थिकनय के विषय एवं उनकी हेय-उपादेयता की यथार्थ समझ प्राप्त करने के उपायों की चर्चा भी इसी
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