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________________ . (७ अपनी बात ) “इसप्रकार अपनी आत्मा की अन्तर्दशा को समझकर ध्रुवरूप स्व आत्म तत्त्व में अहंपना स्थापन करने की मुख्यता से उपर्युक्त समस्त स्थिति को भेदज्ञान एवं अनुसंधानपूर्वक भलीप्रकार समझकर, स्व को स्व के रूप में, पर को पर के रूप में मानते हुये, हेय को त्यागने योग्य, उपादेय को ग्रहण करने योग्य स्वीकार करते हुये, यथार्थ मार्ग शोध निकालने का उपाय उपर्युक्त पुस्तक के भाग २ के माध्यम से हमने समझा है।" इस वर्तमान पुस्तक भाग ३ का विषय है “आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय यथार्थ निर्णय ही है”। प्रस्तुत पुस्तक में उपर्युक्त विषय को प्रवचनसार ग्रन्थ की गाथा ८० की टीका के माध्यम से विस्तारपूर्वक समझाया है। गाथा ८० में बताया है कि "भगवान् अरहंत को जो द्रव्य गुण पर्याय रूप से जानता है वह अपनी आत्मा को जानता है और जो अपनी आत्मा को जानता है उसका मोह (मिथ्यात्व) अवश्य नाश को प्राप्त होता है । “अत: इस गाथा में आचार्यश्री ने सम्यक्त्व प्राप्त करने की सांगोपांग संपूर्ण प्रक्रिया बता दी है। इसी कारण उपर्युक्त गाथा के माध्यम से मोक्षमार्ग को विस्तारपूर्वक समझने का प्रयास किया गया है।" । आत्मार्थी जीव ने भाग-२ के विषय के माध्यम से, अपनी अन्तर्दशा के अनुसंधानपूर्वक सात तत्त्वों में से श्रद्धेय, ज्ञेय एवं हेय उपादेय तत्त्वों को स्व-पर के भेदज्ञान पूर्वक जान तो लिया एवं समझ भी लिया । लेकिन आत्मज्ञता प्राप्त करने के लिये उनका प्रयोग कैसे किया जावे, वह विधि इस पुस्तक में बताई गई है। अत: आत्मार्थी को यही दृष्टिकोण मुख्य रखकर इसका अध्ययन करना चाहिये। "भगवान् अरहंत की आत्मा में वर्तमान में सर्वज्ञता, वीतरागता, निराकुलरूपी सुखदशा आदि प्रगट हुए हैं, वे सब अनादि से ही द्रव्य में थे, तब ही तो पर्याय में प्रगट हुए हैं। अतः भगवान अरहंत की वर्तमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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