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________________ नय एवं दृष्टि का अन्तर ) | (৩৬ द्रव्य एवं पर्याय दोनों में से, जिसको “मेरा” मानने से मेरा प्रयोजन सिद्ध होता हो, उसी में अहं स्थापित करना मेरे लिए हितकर है। ऐसा समझकर हमको हेय-उपादेय का निर्णय करना चाहिए। इसलिए द्रव्यार्थिकनय के विषय में अहंपना स्थापन करना दृष्टि का यथार्थ कार्य है। पर्यायार्थिकनय के विषयों का मात्र ज्ञान, अहंपने के बिना दृष्टि का घातक नहीं होता। इसप्रकार यह निर्णय में आता है कि द्रव्यदृष्टि संसार के अभाव का कारण एवं पर्यायदृष्टि संसारबृद्धि का कारण है। इन दोनों के लाभ और हानि को समझना चाहिये। यथार्थ में द्रव्यार्थिकनय अथवा पर्यायार्थिकनय के द्वारा प्रवर्तित ज्ञान लाभ हानि का कारण नहीं है, क्योंकि ज्ञान का कार्य तो जानना मात्र है। वह तो तटस्थ जैसा रहकर मात्र जानता ही है। पर्यायार्थिकनय के विषयों में अहंपना दृष्टि का घातक है । जानने के समय ही श्रद्धागुण के साथ आत्मा के अन्य गुण भी परिणमते हैं; ज्ञानी का ज्ञान जिसको स्व के रूप में निर्णय करता है एवं ज्ञेय बनाता है, तत्समय ही श्रद्धागुण बिना कोई संकोच करे, उसमें ही अहंपना, “मैंपना” स्थापन कर लेती है । अहंपना स्थापन करते ही मोक्षमार्ग का प्रारंभ हो जाता है। श्रद्धागुण जब अभेद, त्रिकाली, ज्ञायकभाव में अहंपना स्थापन करती है तो आत्मा के समस्त गुण ज्ञान, चारित्र, वीर्य आदि सभी उसके अनुगामी होकर प्रवर्तते हुए श्रद्धा के विषय में तन्मय होने को चेष्टित होते हैं। चारित्र एवं वीर्य की उग्रता के अनुसार आंशिक लीन भी होते हैं, लीन होते ही आत्मा में भरा अनन्त आनंद, का रसास्वादन भी प्रगट हो जाता है। तात्पर्य यह है कि द्रव्यदृष्टि का उदय होते ही आत्मानंद का प्रत्यक्ष वेदन हुए बिना रह ही नहीं सकता। सत्यार्थ श्रद्धान तथा मोक्षमार्ग प्रारंभ हो जाने का यह ही प्रमाण है। यह हो जाने से आत्मा संसार से उपेक्षित हो उसी आत्मानन्द को बारबार प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता रहता है। पण्डित बनारसीदासजी ने निर्जरा द्वार में कहा भी है - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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