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( सुखी होने का उपाय भाग-३ "ज्ञानकला जिनके घट जागी, ते जगमांहि सहज वैरागी। ज्ञानी मगन विषय सुख मांही, यह विपरीत संभवै नाहीं ॥४१॥
आत्मा अरहन्त जैसा ज्ञान में कैसे आता है ?
प्रश्न - प्रवचनसार में कहा है कि ज्ञानी के ज्ञान में आत्मा अरहन्त जैसा प्रगट हो जाता है, वह कैसे?
उत्तर - यथार्थत: प्रवचनसार गाथा ८० के कथन का तात्पर्य यह है कि भगवान अरहंत की आत्मा को उनके द्रव्य-गुण पर्याय के माध्यम से जानने पर, हमको हमारी आत्मा का यथार्थ ज्ञान हो जाता है। क्योंकि दोनों के स्वभाव में अन्तर नहीं है। ऐसा वर्तमान में ही मुझे विश्वास जाग्रत हो जाना चाहिए। इस ही के आधार पर जब मैं अपने आत्मा का अनुसंधान करता हूँ तो, द्रव्यदृष्टि का विषयभूत जो मेरा आत्मतत्त्व है, वह अंतिम ताव प्राप्त शुद्ध स्वर्ण के समान अरहंत के जैसा स्पष्ट है ऐसा निर्णय में आता है । जिसप्रकार उबलते हुए पानी में ठंडापन स्पष्टरूप से दृष्टि में आता है, उसी प्रकार पर्यायों की विविधताओं के बीच भी अरंहत जैसा मेरा आत्मतत्त्व भी दृष्टि में स्पष्टरूप से नि:शंकता पूर्वक आ ही सकता है । इस ही अपेक्षा ज्ञानी को अपना आत्मा अरहंत जैसा श्रद्धा में आ जाता है।
यहाँ ऐसा नहीं समझना कि पर्यायों को गौण कर देने से द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत आत्मा अधूरा रह गया और वह ज्ञान का विषय बनने से दृष्टि अधूरे द्रव्य में अहंपना स्थापन करती है ? दृष्टि तो द्रव्यार्थिकनय के विषय को ही पूर्ण द्रव्य स्वीकार कर, उसमें ही अहंपना स्थापन करती है - दृष्टि में मुख्य गौण की व्यवस्था नहीं है।
यहाँ कोई प्रश्न करें कि श्रद्धागुण की पर्याय भी तो आत्मा की है? उत्तर स्पष्ट है कि दृष्टि का विषय तो एक ही होता है, उसने तो त्रिकाली, एक रूप रहने वाले अभेद ज्ञायकभाव में अहंपना स्थापन कर लिया, तब उसके लिये अहं स्थापन करने योग्य किसी अन्य का प्रश्न ही
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