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( सुखी होने का उपाय भाग
दृष्टि की महिमा बताने की अपेक्षा ही निर्जरा अधिकार का कथन है । दृष्टि के बल से ज्ञानी को भोग में रहते हुए भी ज्ञान और वैराग्य का परिणमन निरंतर वर्तता रहता है, फलतः बहिर्मुख वर्तते हुए अपने उपयोग को पलट कर शीघ्र ही आत्मसन्मुख कर उसमें तन्मय होकर आनन्द को भोगने का पुरुषार्थ करता रहता है।
अज्ञानी के ज्ञान का विषय तो अनादिकाल से एकमात्र पर्याय ही बना हुआ है और उस ही को "स्व" अर्थात् “मैं” तथा पर्याय के विषयों को ही “मेरे” मानने के कारण, उन ही में उपादेयबुद्धि, कर्ता, भोक्ता एवं स्वामित्वबुद्धि आदि बनी रहने से, श्रद्धागुण भी निःशंकरूप से उन ही में अहंपने वर्तता हुआ, अहंपना करता है । फलतः पूरा आत्मा ही विपरीत वर्तने लगता है । ज्ञेय तो अपने से सर्वथा भिन्न हैं आत्मा कितना भी प्रयास करे उनमें तन्मय तो हो नहीं सकता । फलस्वरूप क्षण-क्षण में विफलता भोगता हुआ अत्यन्त आकुलित होकर विषय परिवर्तन करता हुआ, अत्यन्त दुःखी बना रहता है। अज्ञानी जीव की यही अनादि काल से चली आ रही दशा है।
दृष्टि का कार्य क्या ?
हमारा प्रयोजन है सुखी होना (सुख प्राप्त करना) है। जिससे हमारा प्रयोजन सिद्ध हो, वही हमारे लिए उपादेय होता है, यह एक स्वाभाविक स्थिति है । इस अपेक्षा हमको यह निर्णय करना आवश्यक है कि द्रव्यदृष्टि अर्थात् द्रव्य में अहंपना स्थापन करने से मेरे प्रयोजन की सिद्धि होगी अथवा पर्याय में अहंपना स्थापन करने से ? दृष्टि का अर्थ है “अहंपना” ।
ज्ञान के जानने में तो द्रव्य एवं पर्याय दोनों आते हैं लेकिन उनका उपयोगात्मक जानने का परिणमन तो क्रमशः होता है । अतः यह मेरी स्वतंत्रता है कि मैं किसमें अहंपना स्थापन करूँ। क्योंकि जानना चाहे जितना भी हो, यह आवश्यक नहीं कि सभी को मैं "मेरा" मानूँ ? इसलिये
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