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________________ ७० ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ ज्ञानी बनने के लिये नयज्ञान की उपयोगिता उपरोक्त कथन सुनकर हमारे मन में समस्या खड़ी होती है कि हम तो अज्ञानी हैं और हमको नयज्ञान है ही नहीं, तो हमको आत्मदर्शन कैसे हो सकेगा ? ऐसी पुरुषार्थहीनता का विकल्प, सम्यक्त्व सन्मुख जीव को नहीं होना चाहिए। क्योंकि समस्त जिनवाणी के कथन, अज्ञानी आत्मा को ज्ञानी बनाने के लिए ही किये गये हैं, इसलिए हर एक कथन का तात्पर्य समझना चाहिये । यथार्थतः तो अज्ञानी को नयज्ञान की उपयोगिता आत्मस्वरूप समझाने के लिए ही की गई है। आत्मदर्शन के बाद तो समझना नहीं रह जाता, वहाँ तो ज्ञानी का ज्ञान ही स्वयं नयज्ञान स्वरूप हो जाता है। ज्ञानी का ज्ञान जब अभेद द्रव्य स्थाई पक्ष जानने में उपयुक्त होता है उस समय के ज्ञान को द्रव्यार्थिकनय एवं निश्चयनय कहा जाता है और जब उसका ज्ञान पर्याय के विषय एवं भेद जानने में उपयुक्त होता है उस ज्ञान को पर्यायार्थिक एवं व्यवहारनय कहा है । इस अपेक्षा से सम्यक् नयज्ञान का उदय ज्ञानी को होता है। ज्ञान जानने का कार्य तो हर समय करता ही है, कोई समय भी ऐसा नहीं हो सकता कि इसके जानने का कार्य रुक जावे । जानने की स्वाभाविक प्रक्रिया ही ऐसी है कि वह जानने का कार्य जब भी करता है, तब मात्र ‘है' इतना ही नहीं जानता वरन् उसी समय स्व और पर के रूप में जानते हुए ही उदित होता है द्रव्य में दो पक्ष हर समय विद्यमान हैं, एक द्रव्यपक्ष और दूसरा पर्यायपक्ष । इसप्रकार हर समय आत्मा दोनों पक्षों को जानने का कार्य अनवरत रूप से करता ही रहता है । लेकिन अज्ञानी को पर्याय का ज्ञान होता है । उसके साथ रुचि भी उसकी होती है अत: उसमें अहंपना स्थापन ता है । उसको आत्मा का अस्तित्व पर्यायरूप ही दीखता है । फलतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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