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________________ नयज्ञान) (६९ नयज्ञान नयज्ञान व उसकी उपयोगिता हमारे आत्मा का स्थाई भाव ध्रुव एवं अस्थाईभाव पर्याय दोनों ज्ञान के विषय होते हैं और उनको जानने वाली ज्ञान की पर्याय ज्ञायक है। ऐसी ज्ञेय व ज्ञायक की स्थिति है। उन स्थाई-अस्थाई भाव के धारक संपूर्ण आत्मा को एक साथ जानना प्रमाण ज्ञान का विषय है। उस ही प्रमाण के विषय आत्मा को नयज्ञान से समझें तो ध्रुवपक्ष को जानने वाली ज्ञान पर्याय को द्रव्यार्थिकनय कहा जाता है एवं अस्थाई पक्ष, पर्यायपक्ष को जानने वाली ज्ञान की पर्याय को पर्यायार्थिकनय कहा गया है। द्रव्यार्थिकनय के विषय को द्रव्यदृष्टि का विषय भी कहा जाता है एवं पर्यायार्थिकनय के विषय को पर्यायदृष्टि का विषय भी कहा जाता है। द्रव्यदृष्टि प्रगट करने वाले जीव को धर्मी, साधक, एवं मोक्षमार्गी, आदि अनेक नामों से कहकर जिनवाणी में प्रशंसा की गई है एवं पर्यायदृष्टि जीव तो अपने ज्ञायक स्वभाव से अनभिज्ञ होने के कारण अनादि से अज्ञानी बना हुआ है। ___अत: उक्त विषय को महत्वपूर्ण जानकर, गंभीरतापूर्वक, सूक्ष्मदृष्टि से समझना चाहिये। यह ध्यान रखने योग्य है कि अज्ञानी जीव को अनादिकाल से एकमात्र पर्याय में ही अपनापन होने से पर्याय पक्ष ही मुख्य रहा है, उसको तो दूसरे ध्रुवपक्ष का अज्ञान ही वर्त रहा है। अत: ध्रुव पक्ष के अभाव के कारण उसका ज्ञान तो मुख्य-गौण करके जानने में असमर्थ होने से, नय ज्ञान उदित ही नहीं होता। लेकिन ज्ञानी आत्मा ने तो ध्रुवपक्ष का भी दर्शन कर लिया है अत: उसका ज्ञान मुख्य-गौण पद्धति द्वारा दोनों पक्ष जानने की योग्यता प्राप्त कर चुका है। नयज्ञान का उदय ज्ञानी होने पर ही होता है। अज्ञान दशा में नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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