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________________ नयज्ञान ) ( ७१ आत्मा रागी द्वेषी तथा पर को ही जाननेवाला लगता है, आत्मा का अन्य कुछ स्वरूप हो ऐसा लगता ही नहीं है। इसके विपरीत ज्ञानी पुरुष को द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत ध्रुवपक्ष, जब ज्ञान का विषय बनता है उसमें ही स्वपना आ जाने से रुचि भी उस ओर आकर्षित हो जाती है और ज्ञान में भी मुख्यता उसही की हो जाती है । फलतः आत्मा वीतरागी, सर्वज्ञस्वभावी, अनन्त आनन्द स्वभावी ही दीखता है । पर्याय पक्ष गौण हो जाने से दीखता नहीं है । इसप्रकार स्वरूप समझकर, तदनुकूल पुरुषार्थ कर अज्ञानी भी ज्ञानी बन सकता है। 1 नयज्ञान द्वारा आत्मा को समझने की पद्धति अज्ञान दशा में पर्याय मुख्य होने से एवं उसही में अपना एवं उपादेयता होने से आत्मा रागद्वेषी आदि ही दीखेगा। लेकिन जब जिनवाणी अध्ययन, यथार्थ देशना व सत्समागम से यथार्थ स्वरूप समझने की रुचि जाग्रत हो जाती है, तब रागीद्वेषी दशा में भी द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत त्रिकाल ध्रुव स्वभावी आत्मा विद्यमान है, ऐसा विश्वास जम जाता है। अत: सच्ची निष्ठा से पूर्व आग्रहों को छोड़कर, वर्तमान दृष्टि गौण कर, अगर आत्मा को समझने की चेष्टा करेगा तो, दृष्टि में अर्थात् श्रद्धा में ध्रुवस्वभावी आत्मा आ ही जावेगा, वर्तमान दृष्टि मुख्य रखकर, दृष्टि में नहीं आ सकता । अतः द्रव्य की दृष्टि से आत्मा देखेगा तो परम वीतरागी सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा ही मैं हूँ ऐसा दृष्टि में श्रद्धा में आ जावेगा। ज्ञानी को निःशंक रूप से आत्मा, वीतरागी आदि ही दृष्टि में आने लगेगा। | जैसे उबलता हुआ पानी वर्तमान दृष्टि से देखें तो मात्र गरम ही दीखता है । लेकिन वर्तमान स्थिति को गौण कर पानी के स्थाई भाव को मुख्य कर देखें तो उबलते हुए पानी में भी भेदकदृष्टि ठंडा है ऐसा विश्वास में ले लेती है । उस समय भी जल तो उबल ही रहा है, शीतलता का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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