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________________ अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) ( ६१ जाता है। तत्समय ही चारित्र गुण भी विपरीत परिणमता है, उसका कार्य है, श्रद्धा के विषय में लीन होना। लेकिन यहाँ अज्ञानी ने पर को स्व माना है इसलिये उसमें लीन हो नहीं सकता, फलतः राग और द्वेष का उत्पादन करता हुआ मिथ्याचारित्र हो जाता है । इसप्रकार अज्ञानी अनादि से श्रद्धा की विपरीतता के कारण मिथ्यात्व संबंधी भावकर्म तथा चारित्र की विपरीतता से चारित्र मोह संबंधी मिथ्या चारित्र रूप भावकर्मों का उत्पादन अनवरत रूप से करता चला आ रहा है। ज्ञान ने तो जैसा था वैसा प्रकाशित किया था। इसप्रकार सभी भावकर्मों का वास्तविक कर्ता तो अज्ञानी ही हैं, उसकी पर्याय तत्समय की योग्यतानुसार परिणमती रहती हैं। लेकिन आत्मा अभेद, अखण्ड होने से पर्याय का परिणमन भी द्रव्य का ही है । अत: श्रद्धा गुण के विपरीत परिणमन के समय पूरा द्रव्य ही पर्याय में विकारी एवं अशुद्ध हो जाता है तथा पर्यायों के परिणमन का फल आकुलता का वेदन भी पूरे आत्मा को ही भोगना पड़ता है। I इसप्रकार स्पष्ट है कि मिथ्यात्वरूपी भावकर्म का उत्पादन आत्मा की विपरीत मान्यता एवं तत्समय की पर्यायगत योग्यता है । पर्याय का काल एक समय मात्र का है, लेकिन दूसरे समय नवीन भावकर्म फिर उत्पन्न हो जाते हैं । इसीप्रकार अनादि से इन भावकर्मों के उत्पन्न विनष्ट होने की परम्परा अनवरत रूप से चली आ रही है । इनका उत्पादक न तो आत्मा ही है और न कर्म आदि परद्रव्य ही है । इसप्रकार की भूल भी हर समय नवीन-नवीन पर्याय में अज्ञानी आत्मा करता है एवं उसका फल रागादि एवं आकुलता का उत्पादन भी पर्याय में ही होता है लेकिन फल तो आत्मा को ही भोगना पड़ता है I भावकर्मों के साथ द्रव्यकर्मों का निमित्त नैमित्तिकपना भावकर्मों के उत्पादक तो द्रव्यकर्म हैं नहीं। लेकिन पुद्गल द्रव्य की वर्गणायें अपनी-अपनी योग्यता से आत्मा के साथ एक क्षेत्रावगाह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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