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( सुखी होने का उपाय भाग-३ हमारे अनुभव में हैं कि जीव अनादि का है और भावकर्म भी यह अनादि से करता चला आ रहा है, इससे सिद्ध है कि भूल भी अनादि की ही है। जीव स्वयं एक द्रव्य है और अनन्त गुणों का अभेद पिण्ड रहते हुए परिणमता भी है। द्रव्य और गुण तो अविकृत परम शुद्ध ही हैं व शुद्ध ही रहते हैं फलत: उनका परिणमन भी अविकृत ही होना चाहिए लेकिन होता इससे विपरीत है। ____ अनन्त गुणों में से मुख्य तीन गुणों को लेकर विचार करते हैं। आत्मा के ज्ञानगुण का कार्य तो मात्र जानने का है और जानना भी स्व एवं पर को एक साथ जानना है । यह जानना हर समय होता ही रहता है। उसी समय श्रद्धा गुण भी अपना मानने का कार्य करता रहता है। साथ ही चारित्र गुण भी अपने में लीन होने का कार्य करता है । इसप्रकार एक साथ ही तीनों गुण अपनी योग्यता से अपना-अपना कार्य करते हैं। इन तीन गुणों में ज्ञानगुण ही एक ऐसा है जो स्व एवं पर को एक साथ जानने वाला है। लेकिन छद्मस्थ के क्षायोपशमिक ज्ञान की ऐसी निर्बलता है कि वह स्व एवं पर दोनों को एक साथ उपयोगात्मक नहीं जान सकता अर्थात् एकाग्र नहीं हो सकता। ज्ञान में उपयोगात्मक विषय ही ज्ञात होता हुआ लगता है, दूसरे ज्ञेय नहींवत् रह जाते हैं । उपरोक्त स्थिति वर्तने पर अज्ञानी जीव तो पर को स्व मानकर, पर में एकत्व करके मिथ्यात्व रागादि रूप भावकर्मों का उत्पादन करता है और ज्ञानी हो जाने पर वही जीव मिथ्यात्व संबंधी रागादि का उत्पादन नहीं करता। फिर भी ज्ञानी को चारित्र मोह संबंधी भावकर्म होते हैं। लेकिन उस विषय की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे क्योंकि हमारा विषय दर्शनमोह संबंधी भावकर्मों के उत्पादक कारणों के अभाव करने का उपाय खोजना है।
अज्ञानी जीव ने अनादि से परज्ञेयों को स्व मानते हुए उनमें ही अपनापना मान रखा है, श्रद्धा में ऐसी भूल अनादि से चली आ रही है। उस समय का ज्ञान भी पर को स्व के रूप में जानता हुआ मिथ्याज्ञान हो
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