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________________ अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना ) (५९ को स्व का तो ज्ञान ही नहीं है. फलतः शरीरादि पर पदार्थों को ही स्व माना हुआ है और जो अपने शरीर के संबंधी नहीं हैं उनको पर मानता चला आ रहा है। ज्ञान के स्व-पर प्रकाशक स्वभाव का विपरीत प्रयोग करता रहता है । इसप्रकार अपने स्वरूप से अजानकार रहता हुआ, भ्रमण । करता रहता है 1 इसलिए भावकर्मों का अभाव करने के लिए सर्वप्रथम तो अपने स्व का अर्थात् त्रिकाली ज्ञायक ध्रुवतत्त्व का स्वरूप समझकर, उसमें अपनापन अर्थात् उस रूप ही अपना अस्तित्व मानकर ज्ञान एवं श्रद्धान में प्रगटकर एक स्व के अतिरिक्त ज्ञान में ज्ञात होने वाले सब कुछ परज्ञेय के रूप में भासने लगे, ऐसी स्थिति आत्मा में उत्पन्न करना ही भावकर्मों के अभाव करने का उपाय है । अनन्तानुबन्धी का अभाव होकर ज्ञानी हो जाने पर भी भावकर्मों का सर्वथा अभाव नहीं हो जाता परज्ञेयों को पर मान लेने पर भी, परज्ञेयों में जब तक किंचित् भी आकर्षण रहेगा, चारित्र अर्थात् लीनता की कमी के कारण भावकर्म अवश्य होते रहेंगे, लेकिन ज्ञानी उनको क्रमश: क्षीण करता हुआ, सर्वथा अभाव करके स्वयं परमात्मा बन जावेगा । मात्र यह एक ही भावकर्मों के अभाव करने का उपाय है। भावकर्मों को बुरा कहते रहने से भावकर्मों का अभाव नहीं हो सकता । भावकर्म उत्पन्न कैसे होते हैं ? वास्तव में भावकर्मों का उत्पादक आत्मद्रव्य नहीं है क्योंकि आत्मा के अनन्त गुणों में ऐसा कोई गुण नहीं है, जो भावकर्म उत्पन्न कर सके ? फिर भी वे पर्याय में विद्यमान तो हैं । तथा द्रव्यकर्म अचेतन पुद्गल द्रव्य है उनका जीव में अत्यन्ताभाव है उनका उदय होना, पुद्गलों का परिणमन है, अतः वे भी भावकर्मों को उत्पन्न नहीं कर सकते। इसलिए वास्तविक उत्पादक कारण पता लगाना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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