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( सुखी होने का उपाय भाग-३ संश्लेष रूप से बंधी चली आ रही हैं। वे वर्गणायें बंधने के समय अपनी-अपनी योग्यता से, प्रकृति, प्रदेश, स्थ्विाति, अनुभाग को लेकर बंधी हैं। अत: वे योग्यतानुसार अपनी स्थिति पूर्ण होने पर अपने-अपने अनुभाग के साथ जिस जाति के भावकर्म के निमित्त बनने की योग्यता लेकर बंधी थीं; उसी को लेकर उदय में आती हैं । उसीसमय आत्मा ने जितना विकार किया हो । मात्र उतने ही अनुभाग का आत्मा के विकार के साथ निमित्तनैमित्तिक संबंध कहलाता है, बाकी का निमित्त नहीं कहलाता । आत्मा के भावों से अधिक द्रव्य कर्मों का अनुभाग होने पर, स्थिति बंध समाप्त हो जाने के कारण, वे प्रकृतियाँ बिना फल दान करे ही निर्जरित होकर परमाणु रूप हो जाती है, उनका आत्मा के साथ रहना या आत्मा से अलग हो जाना आत्मा के लिए प्रयोजनभूत नहीं है। __उपरोक्त निमित्त-नैमित्तिक संबंध से होने वाली कर्म प्रकृतियों के संबंध में विस्तार से जानना हो तो करणानुयोग के ग्रन्थों से समझना चाहिए यहाँ तो संक्षेप में मात्र इस दृष्टि से चर्चा की गई है कि द्रव्यकर्मों के उदय के अनुसार जीव के भाव नहीं होते, अपितु जीव के भावों के अनुसार कर्मों के अनुभाग का उदय होता है इसलिए मात्र उतने ही अनुभाग के साथ तो निमित्त-नैमित्तिक संबंध कहलाया शेष अनुभाग बिना फल दिए निर्जरित हो जाते हैं। तात्पर्य ऐसा है कि आत्मा अपने भाव करने में स्वतंत्र है, कर्मों के अधीन नहीं है।
साथ ही वे भावकर्म स्वाभाविक भी नहीं हैं। जब आत्मा स्व को भूलकर पर में अपनापन करता है, तो परलक्ष्यपूर्वक परज्ञेयों में एकत्व कर लेता है; फलत: भावकर्मों का उत्पादन करता है।
तात्पर्य यह है कि भावकर्म न तो आत्मा के भण्डार में से आते हैं और न द्रव्य कर्म ही उत्पन्न करते हैं वरन् यह आत्मा ही अपनी मिथ्या मान्यता के कारण पर को निमित्त करके तत्समयवर्ती पर्याय में विकार उत्पन्न कर लेता है। ध्यान रहे निमित्त-नैमित्तिक संबंधमात्र पर्याय का
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