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________________ ४२ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ बन सकता हूँ। भगवान अरहन्त की आत्मा को समझने की रुचि ऐसे जीव को जाग्रत होती है । वह ही अरहन्त को उनके द्रव्य-गुण- पर्यायों के माध्यम से समझकर उनके समान बनने के लिए अपनी आत्मा का अनुसंधान करके परमात्मा बनने का पुरुषार्थ करेगा । भगवान अरहन्त को उनकी वर्तमान पर्याय के माध्यम से समझा जावे तो वीतरागी हो जाने से उनका आत्मा अनन्त सुखी है और ज्ञान भी सर्वज्ञता को प्राप्त हो चुका है। अपने आत्मा को स्व के रूप में तथा लोकालोक के सर्व पदार्थों को पर के रूप में द्रव्य-गुण- पर्यायों सहित जानता है। अत: जानने को कुछ शेष नहीं रहने से, नहीं जानने संबंधी आकुलता का अभाव वर्तता है। राग-द्वेष आदि से होने वाली अशान्ति का अभाव होकर अत्यन्त निराकुल हो जाने से पूर्ण सुखी हो गये एवं आत्मा में बसे हुए अनन्त गुणों की सामर्थ्य पूर्ण प्रगट हो जाने से वे परमात्मा हो गये । इसप्रकार भगवान अरहन्त सर्वज्ञता एवं वीतरागता को प्राप्त कर अनन्त सुखी होकर अनन्त काल तक आनन्द का भोग करते रहेंगे। ऐसी प्रगटता उनकी पर्याय में पहले तो नहीं थी, कहाँ से आई ? पूर्व पर्याय में तो दह आत्मा दुखी, रागी-द्वेषी एवं अल्पज्ञानी था, उस समय भी सामर्थों का सद्भाव तो आत्मा में था ही, तात्पर्य यह है कि पूर्व अविकसित पर्याय का अभाव होकर ही आत्मा में विद्यमान सामर्थ्यो में से ही वर्तमान पर्याय में उनका उत्पाद हुआ है। निष्कर्ष यह है कि उनके समान ही मेरे आत्मा में भी वे सभी सामर्थ्य विद्यमान हैं। अत: निश्चित रूप से मैं भी भगवान बन सकता हूँ। ध्रुव स्वभाव की सिद्धि इसप्रकार सिद्ध है कि अरहन्त के समान सभी सामर्थ्यो गुण शक्तियों का धारक, स्वयं मेरा आत्मा ही है । आगम का सिद्धान्त है "गुणपर्यय वद्रव्यं" अर्थात् गुण- पर्यायों का धारक हो तो आत्मा है । द्रव्य की परिभाषा है कि 'गुणों का समूह वह द्रव्य' और गुणों का परिणमन अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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