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अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना )
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यहाँ यह भी ध्यान रखने योग्य है कि किसी प्रकार भी पर्याय द्रव्य से भिन्न, न तो हो ही सकती है और न की ही जा सकती है, मात्र उसमें मेरेपने की मान्यता छोड़ी जा सकती है । उनको पर मान लेने से उसके रक्षण पोषण का भाव सहज ही छूट जाता है और वीतरागता प्रगट करने के लिए तो पर्याय में विद्यमान रागादि भावों का नाश करना है, अत: यदि पर्याय में किंचित् भी मेरापना रहेगा तो वीतरागता प्राप्त होना असंभव हो जावेगा । ध्यान रहे कि पर्याय का अभाव मानने अथवा करने की भावना मिथ्या है। क्योंकि पर्याय तो द्रव्य का अंश है, उसके बिना अंशी नहीं रह सकता । अतः पर्याय का अभाव नहीं होना है वरन् उसकी अशुद्धि अर्थात रागादि का अभाव करना है एवं शुद्ध वीतरागी होकर ध्रुव के समान बन जाने के लिए पर्याय से अपनापना तोड़ना है । अरहन्त की आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को समझना
भगवान अरहन्त की आत्मा
संसार के प्राणी मात्र का एक ही प्रयोजन है कि आकुलतारूपी दुःख दूर होकर निराकुलतारूपी सुख उत्पन्न हो और वह अनन्त काल तक बिना व्यवच्छेद के बना रहे। वह आकुलता दो प्रकार की होती है । एक तो नहीं जाने हुए विषयों को जानने की और दूसरी दुख दूर कर सुख प्राप्त करने की ।
संसार से जो मुक्त हो गये हैं, उनको तो सभी प्रकार की आकुलताओं का अभाव हो जाता है, ऐसी आत्मा ही परमात्मा कहलाती है एवं उनको अरहन्त, सिद्ध आदि अनेक नामों से संबोधित किया जाता है। इसलिए जिस भव्य जीव को संसार, देह, भोगों का स्वरूप समझकर उनके प्रति अन्तर से आकर्षण छूट गया हो; उसको ऐसे भाव उत्पन्न होते हैं कि अरहन्त भगवान का आत्मा भी पूर्व भवों में तो मेरे जैसा ही आत्मा था, वह आत्मा भी परमात्गा बन गया तो मैं भी अवश्य परमात्मा (अरहन्त)
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