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( सुखी होने का उपाय भाग - ३
की पराकाष्ठा है । ऐसे ज्ञान को ही प्रवचनसार गाथा ३९ में दिव्य कहा है, उसका अर्थ निम्नप्रकार है
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“यदि अनुत्पन्न पर्याय तथा नष्ट पर्याय ज्ञान के (केवलज्ञान के) प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन प्ररूपेगा ?”
इसप्रकार उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि अरहन्त का ज्ञान सर्वज्ञता को प्राप्त हो जाने से, अरहन्त को स्व एवं पर सहित समस्त पदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय, भूत-भावी एवं वर्तमान पर्यायों सहित ज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तते है फिर भी तन्मय पर में नहीं होते । अतः अब जानने को कुछ रहा ही नहीं, तथा वे पूर्ण वीतरागी हो गये इसलिये पूर्ण सुखी हैं, फलत: उनको न तो जानने को कुछ बाकी रहा और न कुछ प्राप्त करना भी बाकी रहा । इसप्रकार वे अनन्त काल तक निराकुल अतीन्द्रिय आनन्द का भोग करते रहते हैं । यह है अरहन्त की सर्वज्ञता की महिमा ।
वीतरागता
वीतराग स्वभाव
अरहन्त की आत्मा का दूसरा विशेषण है वीतरागता । वीतरागता का अर्थ. -रागादि का अभाव । अतः रागादि का आत्मा में से आत्यान्तिक अभाव हो जाना ही अरहन्त भगवान की वीतरागता है । रागादि की उत्पत्ति के कारणों को समझकर उन कारणों का अभाव करने से ही ऐसी वीतरागता प्राप्त हो सकती है। अत: उत्पादकं कारणों को समझना अति आवश्यक है ।
रागादि के दो प्रकार हैं पहला तो मिथ्यात्व अर्थात् स्व-पर की मान्यता में विपरीतता । तात्पर्य यह है कि जो पर है उनको अपना मान लेना और जो वास्तव में स्व है, उसके संबंध में अनिर्णयपना (अजानकारी अथवा विपरीत मान्यता) । इसप्रकार की विपरीत मान्यता के साथ वर्तन वाले अनन्तानुबन्धी रागादि भाव हैं।
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