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वीतरागता)
(३९ दूसरे प्रकार का राग ज्ञानी महात्माओं के मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी का अभाव हो जाने पर भी होता है। ऐसा राग चारित्र मोह के उदय में वर्तने वाले रागादि हैं, वे गुणस्थानों की तारतम्यतानुसार प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यान संचलन के उदयकाल में होते हैं और मोक्षमार्ग में साथ वर्तते हुए भी क्रमश: नाश हो जाते हैं, तब आत्मा पूर्ण वीतरागी होकर अरहन्त हो जाता है।
हमारा विषय है मिथ्यात्व का अभाव करना, क्योंकि मिथ्या मान्यता के अभाव हुए बिना अनन्तानुबन्धी का भी अभाव नहीं होगा और उनके अभाव हुए बिना मोक्षमार्ग ही प्रारम्भ नहीं होगा।
__ अत: स्व और पर के सम्बन्ध में विपरीत मान्यता को दूर करने पर चर्चा करेंगे।
स्व और पर की यथार्थ समझ स्व और पर के विभाजन को समझने की मर्यादा अर्थात् कार्यक्षेत्र अपने आत्मद्रव्य तक ही सीमित रहना चाहिए। इसलिए आत्मद्रव्य से जो सभीप्रकार भिन्न है, जिनके द्रव्य क्षेत्र काल-भाव सभी मेरे से भिन्न है, ऐसे शरीर और शरीर से संबंध रखने वाला सर्व परिकर (वस्तुएँ तथा द्रव्य कर्म आदि की चर्चा यहाँ नहीं करेंगे। क्योंकि वे तो प्रत्यक्ष ही पर हैं। लेकिन रागादि आत्मा में ही होते हैं और उनका ही आत्मा को अभाव करके वीतरागी बनना है अत: हमको अपने आत्मद्रव्य में ही स्व पर को समझना है और समझ कर मिथ्या मान्यता का अभाव करना है।
आत्मद्रव्य में एक साथ ही वर्तने वाले दो प्रकार के भाव हैं, एक तो समय-समय परिवर्तन करने वाले पर्याय भाव दूसरा स्थाई, परिवर्तन नहीं करने वाला ध्रुवभाव। दोनों ही भाव आत्मा में अनादि अनन्त एक साथ ही रहते हैं, क्योंकि दोनों एक ही द्रव्य के अंश हैं, ऐसी स्थिति में इनकी भिन्नता समझकर भी, भिन्न तो किया नहीं जा सकता। इनका स्वरूप
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