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भगवान अरहन्त की सर्वज्ञता )
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अर्थात् जानता है । इन्द्रिय ज्ञान किसी एक इन्द्रिय के विषय को, उस इन्द्रिय के आलम्बनपूर्वक अवग्रह- ईहादि के क्रम से जानता है। लेकिन अतीन्द्रिय ज्ञान, किसी आलम्बन बिना सर्व विषयों को अवग्रह - ईहादि के क्रम बिना एक साथ जान लेता है। प्रवचनसार की गाथा २१ से भी इसका समर्थन होता है ।
गाथा इसप्रकार है
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अर्थ - “वास्तव में ज्ञान रूप से (केवलज्ञान रूप से) परिणमित होते हुए केवली भगवान के सर्व द्रव्य पर्यायें प्रत्यक्ष हैं, वे उन्हें अवग्रहादि क्रियाओं से नहीं जानते ।"
इसलिए ऐसे ज्ञान में ही सर्वज्ञता होती है क्योंकि एक समय मात्र में स्व एवं पर, समस्त लोकालोक का ज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान में ही संभव हो सकता है । क्रमिक वर्तने वाले ज्ञान में संभव ही नहीं होता । प्रवचनसार की गाथा ४१ में भी यही कहा है
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अर्थ – “जो अप्रदेश को सप्रदेश को मूर्त को और अमूर्त को और अनुत्पन्न तथा नष्ट पर्याय को जानता है वह ज्ञान अतीन्द्रिय कहागया है ।”
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इसके अतिरिक्त भी इन्द्रिय ज्ञान परोक्ष ज्ञान है, क्योंकि वह ज्ञेय को किसी आलम्बन लेकर ही जानता है, सीधा नहीं जानता। लेकिन अतीन्द्रिय ज्ञान के प्रवर्तन में बीच में कोई नहीं रहता, सीधा आत्मा से जानता है; इसलिए उस ज्ञान को ही प्रत्यक्ष ज्ञान कहा गया है । इन्द्रिय ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से प्रवर्तता है, इसलिए परोक्ष है तथा अतीन्द्रिय ज्ञान तो ज्ञेय को सीधा जानता है इसलिए प्रत्यक्ष और अत्यन्त स्पष्ट होता है। ऐसे अतीन्द्रिय ज्ञान में ही सर्वज्ञता प्रगट होती है और ऐसा ही ज्ञान एक समय मात्र में, समस्त पदार्थों को भूत-भावी - वर्तमान पर्यायों सहित एक साथ प्रत्यक्ष जान लेता है, यही सर्वज्ञता है और यही ज्ञान के विकास
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