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( सुखी होने का उपाय भाग-३ इसीप्रकार आत्मा में जो ज्ञानगुण है, उसके सामर्थ्य के विकास की मर्यादा भी असीमित है। ज्ञानगुण का कार्य है जानना, अत: उसके जानने क्री मर्यादा भी असीमित ही रहती है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के ज्ञान गुण का सामर्थ्य इतना है कि वह एक समय मात्र में अपने सहित लोकालोक के जितने भी पदार्थ हैं, उन सबको एक साथ ही जान सकता है। यह युक्ति तर्क एवं आगम से तथा हमारे अनुभव से भी सिद्ध है। जैसे एक कक्षा के चार विद्यार्थियों को लेकर समझा जावे तो ज्ञान तो चारों ही विद्यार्थियों में समान रूप से विद्यमान है लेकिन उनके विकास में अन्तर है। उनमें एक ही पाठ को एक विद्यार्थी तो ४ घंटे में याद कर पाता है, दूसरा २ घंटे में, तीसरा एक घंटे में और चौथा तो पन्द्रह मिनिट मेंही याद करके सुना देता है। इस दृष्टान्त से यह निश्चित होता है कि मात्र ज्ञान के विकास में ही तारतम्यता है, ज्ञान गुण में नहीं, इस तारतम्यता द्वारा यह अनुमान तो किया ही जा सकता है कि लोक में ऐसा भी कोई व्यक्ति अवश्य होना चाहिए, जिसमें इस तारतम्यता की पराकाष्ठा प्रगट हो गई हो । अर्थात् लोक में कोई आत्मा ऐसा भी होना चाहिए जो काल के छोटे से छोटे काल एक समय मात्र में ही विश्व के जो भी, जितने भी, जानने योग्य पदार्थ हो उन सबको जान लेवे। ऐसा ज्ञान प्रगट होना ही ज्ञानगुण की सर्वज्ञता है और ऐसी पराकाष्ठा को प्राप्त आत्मा ही सर्वज्ञ है । इसप्रकार सर्वज्ञता तो आत्मा का स्वभाव है। यह उपरोक्त प्रकार से प्रमाणित है। अत: सिद्ध है कि पूर्ण दशा को प्राप्त अरहंत एवं सिद्ध भगवान सर्वज्ञ
अतीन्द्रिय ज्ञान में ही सर्वज्ञता होती है जो ज्ञान मन व इन्द्रियों के माध्यम से प्रवर्तता है, उस ज्ञान पर्याय को इन्द्रिय ज्ञान कहा जाता है। जो ज्ञान मन व इन्द्रियों के आलम्बन के बिना सीधा आत्मा से प्रवर्तता अर्थात् जानता है, वह ज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान है। इन्द्रिय ज्ञान क्रमिक कार्य करता है और अतीन्द्रिय अक्रमिक प्रवर्तता
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