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( सुखी होने का उपाय भाग-३ नहीं होने से परज्ञेय जो जानने में आते हैं, उन ही को अपना मानने के कारण, किसी ज्ञेय को अच्छा मानकर उससे राग करने लगता है एवं किसी ज्ञेय को अहितकर मानकर उससे द्वेष करने लगता है। लेकिन वे ज्ञेय तो पर हैं, इसकी इच्छा के आधीन कैसे परिणम सकते हैं ? फलत: इच्छा की पूर्ति नहीं हो सकने से निरन्तर दुःखी-दुःखी ही बना रहता है।
इसके विपरीत भगवान अरहंत का आत्मा अपने ध्रुव स्वभावी आत्मा को ही स्व मानने के कारण, स्व के जानने में तत्पर रहता हुआ तन्मय होकर प्रवर्तता है तथा पर ज्ञेयों में किसी से भी अपनेपने का संबंध नहीं रहने से उनके प्रति मध्यस्थ बने रह कर जानता रहता है। उनका ज्ञान पूर्णता को प्राप्त हो जाने के कारण उनके ज्ञान में एक साथ ही सब कुछ प्रत्यक्ष हो गया। सर्वज्ञ हो जाने से कुछ भी जानने को बाकी नहीं रहा। इच्छाओं के अभाव के कारण, आकुलता नहीं रही अत: वे पूर्ण सुखी हैं। भगवान् अरहंत अपने आत्मस्वरूप में ही अपनापन बना रहने के कारण उसमें ही लीन होकर परिणमते हैं। परज्ञेय ज्ञान में विद्यमान होते हुए भी, नहीं जानने के समान बने रहते हैं। अत: किंचित् भी रागद्वेष की उत्पत्ति नहीं होती, फलत: किसी भी प्रकार की आकुलता की उत्पत्ति का अवकाश ही नहीं रह जाता। अत: भगवान् अरहंत पूर्ण सुखी बने रहकर अत्यन्त तृप्त, तृप्त रहते हैं। इसी विषय को आगे भी समझने का प्रयास करेंगे। ___इसप्रकार भगवान अरहंत की आत्मा को पहिचानने के लिये उपयुक्त मुख्य चार गुणों, श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं सुख के स्वरूप के द्वारा भगवान अरहंत की आत्मा को समझेंगे तभी हम अपनी आत्मा को भी समझ सकेंगे और अन्तर को दूर कर सकेंगे।
___ अरहंत की आत्मा द्वारा
अपनी आत्मा को समझने की विधि जैसे स्वर्ण के दृष्टान्त को मुख्य रखकर अरहंत की आत्मा को समझना है, उसीप्रकार अरहंत की आत्मा को स्वर्ण के स्थान पर रखकर,
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