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________________ आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय ) ( २७ अपनी आत्मा के स्वरूप को समझना है। इसलिये जिसप्रकार स्वर्ण का स्वरूप ज्ञान में स्पष्ट होने से ही अशुद्ध स्वर्ण में भी शुद्ध स्वर्ण को समझ सकते हैं, उसीप्रकार जब तक अरहंत की आत्मा का स्वरूप ही हमारे ज्ञान में स्पष्ट नहीं होगा, तब तक हम अपने आत्मा के स्वरूप को भी नहीं पहिचान सकेंगे । अतः भगवान अरहंत की आत्मा के स्वरूप को संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय रहित निःशंकता पूर्वक ज्ञान में स्पष्ट कर लेना चाहिये । अशुद्ध स्वर्ण में भी शुद्ध १०० टंच के सोने को, पहिचानने का माध्यम शुद्ध स्वर्ण था, सोने के साथ कैसा भी कितना भी मिश्रण कर दिया जावे उसमें भी सोने के यथार्थ ज्ञान के माध्यम से " दृष्टि" स्पष्ट रूप से शुद्ध स्वर्ण को पहिचान लेती है। जांच करने वाला मिश्रणों की तरफ ज़रा भी दृष्टि, नहीं करता हुआ, स्वर्ण का मूल्यांकन कर लेता है । उसकी दृष्टि में तो मात्र स्वर्ण का ही अस्तित्व रहता है। ज्ञान में यह जानकारी हो सकती है कि इसमें किस धातु का मिश्रण कितना है। लेकिन उसका ज्ञान उसको हेय तत्त्व यानी स्वर्ण का विकार समझकर निकालने योग्य ही मानता है व जानता है । इसी प्रकार भगवान अरहंत के आत्मा में गुणों का पूर्ण विकास हो गया है । अत: उनकी आत्मा को द्रव्य के माध्यम से देखो तो वैसा ही है, गुणों के माध्यम से देखो तो वैसा ही है तथा पर्याय के माध्यम से देखो तो वैसा ही है। इसप्रकार अरहंत की आत्मा का स्वरूप, हमारी आत्मा को समझने के लिये यथार्थतः कसौटी का कार्य कर सकेगा ऐसा हमारे निर्णय में स्पष्ट हो जाना चाहिये। इसलिये अरहंत की आत्मा के स्वरूप को विस्तार पूर्वक समझे बिना, अपनी आत्मा को पहिचान करना संभव नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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