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________________ २०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ गाथा ८० की विषय वस्तु आत्मज्ञतापूर्वक मिथ्यात्व के नाश का उपाय गाथा ८० का अर्थ इसप्रकार है : अर्थ :- जो अरहंत को द्रव्यपने, गुणपने, पर्यायपने जानता है, वह अपने आत्मा को जानता है और उसका मोह अवश्य लय (नाश) को प्राप्त होता है ॥ ८० ॥ आचार्यदेव ने गाथार्थ द्वारा मिथ्यात्व के नाश के उपाय को तीन भागों में विभक्त कर दिया है - (१) अरहंत को द्रव्य, गुण, पर्यायपने जानना, (२) उसके द्वारा अपनी आत्मा के स्वरूप को जानना, (३) उसके फलस्वरूप मोह अर्थात् दर्शनमोह का नाश मात्र ही नहीं बल्कि अवश्य ही नाश (क्षय) को प्राप्त हो जाना। इस उपाय को हमको भी तीन भागों में विभक्त कर समझना चाहिए। __गाथा की टीका में आचार्यश्री ने स्पष्ट किया है कि “जो वास्तव में अरहंत को द्रव्य रूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है वह वास्तव में अपने आत्मा को जानता है।" प्रश्न - अरहंत के जानने से अपनी आत्मा को कैसे जान लेगा? इसके उत्तर में कहा है “क्योंकि दोनों में निश्चय से अन्तर नहीं है।" प्रश्न - अरहंत के स्वरूप को कैसे पहिचाना जावे? उत्तर - कि “अरहंत का स्वरूप, अन्तिम ताव को प्राप्त सोने के स्वरूप की भाँति, परिस्पष्ट (सर्वप्रकार से स्पष्ट) है, इसलिये उसका ज्ञान होने पर (संपूर्ण) आत्मा का ज्ञान होता है।” इसप्रकार अरहंत को पहचानने का उपाय भी बता दिया है। आत्मार्थी को मोह के नाश का सरलतम उपाय बताने के लिए उपर्युक्त गाथा एवं टीका पूर्णत: सक्षम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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