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आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय )
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उपर्युक्त गाथाओं में आचार्य महाराज ने गाथा ८० में तो दर्शन मोह को नाश कर आत्मज्ञता प्राप्त कर सम्यक्त्व प्राप्त करने का उपाय बताया है । एवं गाथा ८१ में सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने पर चारित्र मोह का नाश कर साक्षात् भगवान बनने का उपाय बताया है ।
जो कमर कसकर भगवान बनने के लिए पूर्ण पुरुषार्थपूर्वक उद्यत हुआ है, उस आत्मा के लिए उपर्युक्त दोनों गाथाओं में पूरी विधि वर्णन कर दी है। इन दोनों गाथाओं में से गाथा ८१ में कहा है कि जीवो ववगदमोहो “ अर्थात् जिस जीव ने मोह (दर्शन मोह) को दूर किया है" इसका तात्पर्य यह निकला कि जिस जीव ने गाथा नं. ८० के मर्म को समझकर आत्मज्ञता प्राप्त कर ली है वह जीव ही गाथा नं. ८१ के अनुसार परिणमन करके भगवान बन सकेगा । प्रकारान्तर से असंभव होने का अभिप्राय है, अन्य कोई मार्ग नहीं है । तात्पर्य यह है कि जिसको भगवान बनना है उसको सर्वप्रथम गाथा ८० में बताई विधि के अनुसार श्रद्धा में यथार्थता उत्पन्न करके दर्शनमोह का नाश करना, एकमात्र आवश्यक कर्तव्य है । इसके बिना गाथा ८१ में बताया गया मार्ग कार्यकारी नहीं हो सकता ।
इसी हेतु से टीकाकार आचार्यश्री ने गाथा ८० के प्रारंभ करने के पूर्व, उग्र पुरुषार्थ प्रेरक शब्द लिखे हैं कि “ इसलिए मैंने मोह की सेना पर विजय प्राप्त करने को कमर कसी है ।" आत्मार्थी को भी इस गाथा का महत्व स्वकल्याण की दृष्टि से, स्व के लक्ष्य से, पूर्ण मनोयोगपूर्वक समझना चाहिए एवं आत्मतत्त्व को आत्मसात् करने हेतु जगत की उपेक्षापूर्वक, अपनी परिणति एवं उपयोग को सब तरफ से समेट कर, आत्मलक्षी करना चाहिये तथा एकमात्र स्वज्ञेयतत्त्व में ही अपनापन स्थापनकर, आत्मज्ञता प्राप्त कर लेना चाहिए ।
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