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आत्मज्ञता प्राप्त करने का उपाय )
( २१ स्वर्ण के दृष्टान्त द्वारा अरहन्त की आत्मा को समझना
भगवान् अरहंत का स्वरूप समझने के लिये आचार्य महाराज ने “अन्तिम ताव को प्राप्त सोने का दृष्टान्त दिया है। “विचार करना चाहिए कि अन्तिम ताव को प्राप्त सोना ही क्यों लिखा? कारण यह है कि जिसने कभी सोना परखा ही न हो उसको सर्वप्रथम शुद्ध स्वर्ण का ज्ञान कराया जाता है तभी वह मिश्रित अवस्था प्राप्त स्वर्ण में, असली सोना दृष्टि में ले सकता है। इसी प्रकार आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ प्राणी को आत्मस्वरूप का ज्ञान कराने के लिये शुद्ध स्वर्ण के समान, शुद्ध आत्मा का ज्ञान कराना सर्वप्रथम आवश्यक एवं प्रयोजनभूत है तभी क्रोधादि भावों से मिश्रित आत्मा में से शुद्ध आत्मा को दृष्टि में पकड़ सकेगा। ऐसी शुद्ध आत्मा तो भगवान अरहंत की आत्मा ही है। अत: सर्वप्रथम स्वर्ण के दृष्टान्त को ही समझना चाहिए।
जैसे एक स्वर्ण के स्वरूप से अनभिज्ञ व्यक्ति, स्वर्ण को पहिचानने की कला सीखने के लिए उद्यत होता है तो वह स्वर्ण के स्वरूप को भलीप्रकार जाननेवाले किसी व्यक्ति का सम्पर्क करेगा। स्वर्ण के संबंध में परोक्ष जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करेगा। पश्चात् असली स्वर्ण के साथ मिलान करेगा असली स्वर्ण के स्वरूप को, उसकी विशेषताओं (गुणों) के माध्यम से भलेप्रकार से समझकर पक्का निर्णय करेगा। उसके बाद ही उस व्यक्ति का ज्ञान इस योग्य परिपक्व हो सकेगा कि वह अशुद्ध स्वर्ण में भी असली स्वर्ण को पहिचान सके । इसप्रकार जिसने क्षयोपशम द्वारा ही स्वर्ण के परखने की कला सीख ली है । उसकी परीक्षा लेने के लिए निष्णात व्यक्ति उसके समक्ष मिश्रित स्वर्ण की डली उपस्थित करता है और साथ ही शुद्ध स्वर्ण की एक लकीर भी कसौटी पर लगाकर, मिश्रित स्वर्ण में से शुद्ध स्वर्ण की मात्रा खोजने को कहता है। उस डली के एक-एक अंश में अन्य धातुएं मिश्रित हैं। अत: यहाँ सामान्यतया शुद्धस्वर्ण तो देखने में नहीं आ रहा है अर्थात् वर्तमान पर्याय
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