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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (११९ उपर्युक्त स्वभावी आत्मा मानने में मुझे पर्याय में वर्तता हुआ रागादि सबसे बड़ा बाधक लगता हैं ? लेकिन समझना चाहिए कि वे रागादि तो संयोगीभाव हैं पर के साथ संयोग करूँ तो वे उत्पन्न होते हैं और जितने काल तक संयोग रहेगा तब तक ही रहते है। अत: अगर मेरा आत्मा अपने ही चेतनास्वरूपीत्रिकालीध्रुवज्ञायक के साथ एकत्व करे तो, पर के साथ संयोग होगा ही नहीं तो संयोगीभाव स्वत: ही नहीं रहेंगे। अज्ञानी की मिथ्या मान्यता के कारण, पर का संयोग करने से वे उत्पन्न होते थे, अब आत्मा में एकत्व करने से वे भाव उत्पन्न ही नहीं होंगे। अहंपना स्थापन किसमें करना उपर्युक्त प्रकार से द्रव्यार्थिकनय के विषयभूत ध्रुवतत्व का एवं पर्यायार्थिकनय के विषयभूत पर्याय का, यथार्थ स्वरूप समझकर, निर्णय करना चाहिए कि मुझे इनमें से किसमें अहंपना स्थापन करना चाहिए कि जिससे मेरा प्रयोजन सुख और शांति प्राप्त हो। समझ में आता है कि पर्याय का तो जीवन ही एक समय मात्र का है, उसको अपना मानने से तो हर समय जीवन मरण का दुख भोगने वाला आत्मा कैसे शान्त व सुखी रह सकेगा। अत: पर्याय कैसी भी हो मेरा मानने योग्य नहीं है, पर समझकर मात्र उपेक्षा करने योग्य है। श्रद्धा में उपेक्षा उत्पन्न होते ही ऐसी श्रद्धा जागृत हो सकेगी कि त्रिकाली ध्रुवतत्त्व में अहंपना स्थापन किया था, वह मैं ही हूँ अर्थात् श्रद्धा अपेक्षा मैं तो वर्तमान में ही अरहंत हूँ। उपर्युक्त मान्यता से लाभ उपर्युक्त मान्यता जागृत होते ही, त्रिकाली ध्रुवभाव रूप ही अपना अस्तित्व श्रद्धा में आ जाना चाहिये कि मैं यह ही हूं। पर्यायें उत्पन्न होते हुवे भी, उनमें सहजरूप से अहंपने का भाव उत्पन्न होने की शंका उत्पन्न नहीं होना चाहिये। जैसे सहजरूप से ज्ञानी को सात भय उत्पन्न नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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