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________________ ११८ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ कैसे माना जा सकता है ? स्वरूप तो वही हो सकता है जो अनादि से अनन्त काल तक द्रव्य-गुण- पर्याय तीनों में सदैव विद्यमान रहे । भगवान की आत्मा में चेतना ही अन्वय रूप से द्रव्य में, गुण में एवं पर्यायों में भी सदैव प्रवाहित होता रहता है, लेकिन मिथ्यात्व रागादि का तो अंश भी नहीं रहता, क्योंकि द्रव्य में तो उनका अस्तित्व है नहीं, लेकिन चेतना का तो कभी किसी भी स्थिति में नाश नहीं होता। अतः सब प्रकार से चेतना ही आत्मा का स्वरूप सिद्ध होता है । अज्ञानी की आत्मा में मिथ्यात्व, रागादि विद्यमान वर्तते हुए भी चेतना तो उनको भी जानते हुए उनसे ऊर्ध्व (मुख्यपने) वर्तती हुई, अनुभव में ज्ञात हो रही है । इसप्रकार मिथ्यात्व रागादि के वर्तते हुए भी, चेतना तो उनको भी भेदती हुई, अन्वय रूप से प्रवाहित होती हुई अनुभव में आती है । अत: चेतना ही आत्मा को पहिचानने एवं समझने का एकमात्र लक्षण है 1 इसप्रकार अन्वय के सिद्धान्त द्वारा भगवान अरहन्त एवं सिद्ध की आत्मा को ज्ञान में लूँ तो चेतन ही द्रव्य, चेतन के विशेषण भी चेतन तथा चेतन का ही समय-समयवर्ती परिणमन सभी में एक चेतन ही प्रवाहित होता हुआ, अभेदआत्मा ही निर्णय में आता है । उसीप्रकार अन्वय के सिद्धान्त द्वारा हमारी आत्मा को भी समझने का प्रयास करें तो हमको भी आत्मा में एक चेतन ही प्रवाहित होता हुआ ज्ञात हो सकेगा । द्रव्य तो चेतन रूप है ही और उस चेतन के विशेषण (गुण) उसमें भी वह चेतन तथा चेतन का परिणमन अर्थात् समय-समयवर्ती पर्यायों में भी चेतन ही प्रवाहित होता हुआ ज्ञात हो रहा है । अर्थात् अन्वय की दृष्टि से देखने पर द्रव्य भी, चेतन, गुण भी चेतन तथा पर्याय भी चेतन; इसप्रकार तीनों में एक चेतन ही प्रवाहित होने से द्रव्य-गुण- पर्याय का भेद भी निरस्त होकर मुझे तो मेरा आत्मा, एकमात्र अभेद चैतन्य स्वरूप ही ज्ञात होता है। इसप्रकार भगवान अरहन्त अथवा सिद्ध जैसा ही मेरा आत्मा मुझे विश्वास में आ जाता है । 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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