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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (११७ विशेषण वह गुण है और एक समय मात्र की मर्यादा वाला काल परिमाण होने से परस्पर अप्रवृत्त अन्वय व्यतिरेक वे पर्यायें हैं जो कि चिद्विवर्तन की ग्रन्थियां हैं।' इसप्रकार चेतन ही स्वयं प्रवाहित होकर पर्याय तक प्रसरा है, ऐसा अभिप्राय आचार्यश्री का इस टीका में स्पष्ट झलकता है। 'अन्वय' शब्द का भाव तत्वार्थराजवार्तिक के अध्याय ५ सूत्र नं. २ पृष्ठ ४३६ में निम्नप्रकार प्रस्तुत किया है - ____ 'स्वजात्यपरित्योगेनावस्थितिरन्वयः।' अर्थ – 'अपनी जाति को न छोड़ते हुये, उसी रूप में स्थित रहना अन्वय है।' उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर उपर्युक्त कथन को समझें तो स्पष्ट होता है कि आत्मा अपने चेतन स्वभाव अर्थात् जाति को छोड़े बिना, चेतन रूप में ही निरन्तर अर्थात् हर पर्याय में उपस्थित रहे, वह अन्वय है। आचार्यश्री ने इसही को उपरोक्त टीका में स्पष्ट किया है कि अन्वय वह चेतन द्रव्य है, द्रव्य कैसा है? कि चैतन्यरूपी जाति अर्थात् विशेषण वाला है और उस द्रव्य की हर समय नवीन उत्पन्न होती हुई पर्यायें हैं, वे उस चैतन्यरूपी द्रव्य की ही गांठें हैं अर्थात् एक-एक समय की अपेक्षा हर समय वह चैतन्य का ही परिणमन हो रहा है। अपनी जाति अर्थात् चेतना स्वभाव को छोड़े बिना हर एक पर्याय में प्रवाहित होता हुआ चेतन ही प्रकाशमान है। इसप्रकार द्रव्य से अथवा पर्याय से देखो तो मात्र वह चेतन ही हर समय प्रवाहित होता हुआ दिखता है। हर समय ज्ञायक ही ज्ञायक प्रकाशित हो रहा है। उक्त अन्वय के सिद्धान्त के माध्यम से अज्ञानी आत्मा को भी स्पष्ट समझ में आवेगा कि मेरा आत्मा भी चेतना स्वरूप ही है। विकार जो पर्याय में विद्यमान हैं, वह अन्वयी ऐसे द्रव्य में नहीं हैं एवं अन्वय के विशेषण जो गुण उनमें भी नहीं मिलता तथा ज्ञान की पर्याय में भी नहीं है। श्रद्धा गुण एवं चारित्र गुण की एक समय मात्र की पर्याय में ही उत्पन्न होकर विनष्ट होता रहता है। ऐसी स्थिति में उसको आत्मा का स्वरूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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