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________________ ११६ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ I काल भी ऐसी ही पर्यायें उत्पन्न होती रहें तो भी उसमें किंचित् भी कमी आने वाली नहीं है । समयसार में वर्णित ४७ शक्तियाँ आदि अनन्त शक्तियाँ ध्रुवतत्त्व के खजाने में भरी हैं । वे सब अरहन्त भगवान की आत्मा में प्रगट हो रही हैं और मेरे भण्डार में वर्तमान में भरी हुई हैं । इसप्रकार अनन्त महिमावन्त है मेरा यह ध्रुवतत्त्व | जब भी मैं पर्याय को गौण कर द्रव्यार्थिकनय द्वारा अपने ध्रुवभाव को विषय करूँ तो विद्यमान दिखता है और विश्वास में भी आता है और श्रद्धा जाग्रत हो जाती है कि मैं तो वर्तमान में ही अरहन्त जैसा हूँ। मात्र पर एवं एक समयवर्ती पर्याय में अहंपना स्थापन करना तो अत्यन्त विपरीतता है । इसप्रकार द्रव्य की अपेक्षा मैं तो अरहन्त ही हूँ, ऐसी श्रद्धा प्रगट होकर मिथ्यात्व का अभाव हो जाता है 1 चेतन ही अन्वय रूप से प्रसरता है आचार्यश्री ने अरहन्त की आत्मा के द्वारा अपनी आत्मा के स्वरूप को समझने का उपाय भी उक्त टीका में बताया है 1 टीका के उक्त अंश द्वारा आचार्य महाराज ने पहले तो अन्वय के सिद्धान्त को दृष्टान्त बनाकर प्रस्तुत किया है । अन्वय का वाच्यार्थ होता है कि जो सबमें प्रवाहित होता रहे; जैसे एक माला बनाने में 'सूत्र' जिसमें माला के सब मणियों को पिरोया जाता है वह 'सूत्र' अन्वय के स्थान पर सब मणियों में एक रूप से प्रवाहित होता है, इसलिए उसको अन्वय कहा गया है । उपरोक्त टीका के दोनों चरणों में द्रव्य और पर्याय के अन्तर को समाप्त करने के लिये अन्वय को मुख्य बनाया है इसमें प्रथम अन्वय का प्रयोग सिद्धान्त समझाने के लिये अरहन्त की आत्मा में किया है यथा— 'वहाँ अन्वय वह द्रव्य है, अन्वय का विशेषण वह गुण है और अन्वय के व्यतिरेक 'भेद' वे पर्यायें हैं।' दूसरी बार उसी अन्वय का प्रयोग अपनी आत्मा को समझाने के लिए पुनः किया है यथा- 'यह 'चेतन' है, इसप्रकार का अन्दप वह द्रव्य है, अन्वय के आश्रित रहने वाला 'चैतन्य' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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