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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) ( ११५ में कहा है कि 'अरहन्त का स्वरूप, अन्तिम ताव को प्राप्त सोने की भांति परिस्पष्ट (सभी प्रकार से स्पष्ट) है, इसलिए उसका ज्ञान होने पर सभी आत्मा (निज आत्मा) का ज्ञान होता है ।' अर्थात् अपने आत्मा का स्वरूप समझ में आ जाता है । भगवान अरहन्त के आत्मा की पर्याय प्रगट है । द्रव्य की समस्त सामर्थ्य जो भी थीं, पूरी की पूरी पर्याय में प्रगट हो गयी । द्रव्य का कार्य तो पर्याय द्वारा ही प्रगट होता है । अत: उनकी प्रगट पर्याय के माध्यम से ही उनके द्रव्य का सामर्थ्य, हमारे ज्ञान की पकड़ में आ जाता है । ऐसी स्थिति में जब हम अरहन्त की आत्मा को पर्यायार्थिकनय से देखेंगे तो भी और द्रव्यार्थिकनय से देखेंगे तो भी एक जैसी ही है। इसप्रकार अरहन्त के आत्मा के ज्ञान द्वारा अपने स्वरूप का ज्ञान स्पष्ट हो जाता है और श्रद्धा जाग्रत होती है कि आत्मद्रव्य जहाँ कहीं भी हो कैसी भी स्थिति में हो, वह स्वभाव से तो अरहन्त जैसा ही है । इसप्रकार अरहन्त के आत्मा को समझने से हमारे, आत्मा का स्वभाव समझ में आ जाता है, क्योंकि उनकी पर्याय में जो भी प्रगट हुआ है, वह आत्मा में विद्यमान था, तब ही तो प्रगट हो सका है । वह स्वभाव ही शक्ति रूप में हर एक आत्मा में विद्यमान रहता है । इस न्याय से जब हम अपनी आत्मा को खोजेंगे तो हमको पर्याय को अत्यन्त गौण करके स्वभाव (ध्रुवभाव) की खोज करनी होगी। पर्याय को गौण करने पर शुद्ध द्रव्यार्थिकनय (निश्चयनय) का विषयभूत जो ध्रुवभाव है, वह ही श्रद्धा का विषय रह जावेगा । इसप्रकार जब ध्रुवभाव की ओर दृष्टि करते हैं तो वहाँ तो कोई प्रकार का विकार अथवा अपूर्णता आदि कुछ है ही नहीं, वह तो उन सभी शक्तियों का भण्डार है, जो भगवान अरहन्त में प्रगट हो चुकी हैं। वह तो ज्ञान की पूर्णता सहित परम वीतरागी निराकुल शान्ति का भण्डार रूप अनुपम तत्त्व है, ऐसा श्रद्धा में प्रगट होता है । उस भण्डार में से अनन्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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