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________________ ११४ ) ( सुखी होने का उपाय भाग - ३ होने से, पर को आत्मा के रूप में जानता हुआ वह (ज्ञायक भाव) विशेष अपेक्षा से अज्ञान रूप ज्ञान परिणाम को करता है ।" उपरोक्त प्रकार से यह स्पष्ट है कि पर्याय में व्यक्त हुए विकारीभाव ( विपरीता) तो पर के संयोग जनित संयोगीभाव है । जो पर के साथ एकत्व (अपनापन) करने से उत्पन्न होते हैं। अगर उनके साथ एकत्व नहीं करे तो ज्ञान में ज्ञात हो जाने मात्र से संयोग नहीं हो जाता, अपना नहीं मानने से स्वतः गौण (उपेक्षित) रह जाते हैं। अतः स्वभाव दृष्टि में तो उनका कोई स्थान नहीं है । इस दृष्टि से मेरी आत्मा और अरहन्त की आत्मा में कोई असमानता है ही नहीं । इसप्रकार स्पष्ट है कि आत्मा की पर्याय का क्षेत्र तो आत्मा ही है लेकिन विकार का स्वक्षेत्र आत्मा नहीं है संयोग है । क्योंकि संयोग रहने तक विकार भी रहता है, संयोग का अभाव होने के साथ विकार का भी अभाव हो जाता है; लेकिन पर्याय का अभाव नहीं होता । वह तो द्रव्य के साथ ही रहती है। इसलिए विकार को मेरा नहीं माना जा सकता । फिर भी विकार का पर्याय में अस्तित्व देखकर, जिनवाणी में व्यवहार से विकार को आत्मा का कहा है। ऐसा कहने में भी आचार्यश्री का उद्देश्य आत्मा में से विकार का अभाव करना ही है । क्योंकि जो विकार का करनेवाला अपने को नहीं मानेगा तो दूर ही क्यों करेगा? रागादि अभाव हुए बिना पर्याय में सिद्धपना प्रगट हो नहीं सकता । इसप्रकार आचार्यों ने विकार का कर्तृत्व स्वीकार कराकर, नाश कराने का उपाय भी बताया तथा सिद्ध स्वभावी ध्रुव आत्मा की दृष्टि कराकर, आत्मा को अरहन्त के समान सिद्ध करके, उसमें अपनापन करके अरहन्त बनने का उपाय भी बताया । आत्मा का द्रव्य तो अरहन्त समान ही है पहले चर्चा करते आये हैं कि शुद्ध निश्चयनय से तो मेरा ध्रुवधाम अरहन्त जैसा ही है। अब उसे और दृढ़ करते हैं । उक्त गाथा की टीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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