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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (११३ ज्ञेयाकारों को भी जान लेता है। जबकि वे तो अपने-अपने स्वक्षेत्र में ही विद्यमान रहते हैं। लेकिन ज्ञान अपनी पर्यायगत योग्यतानुसार अपने स्वक्षेत्र में रहकर निकटवर्ती अथवा दूरवर्ती ज्ञेयों को भी जान लेता है। लेकिन केवली भगवान स्व के साथ समस्त ज्ञेयों को जानते हुए भी किसी के साथ संयोग नहीं करते। इससे सिद्ध है कि मात्र जानना न तो संयोग करता है और न संयोगी भाव ही उत्पन्न करता है। प्रश्न - ऐसी स्थिति में संयोगीभाव कैसे हो जाते हैं? उत्तर - अज्ञानी की पर में स्वामित्वबुद्धि होने से जब ज्ञान में ज्ञेय ज्ञात होते हैं, उस समय वह ज्ञात ज्ञेयों का अपने में संयोग नहीं होने पर भी संयोग मान लेता है। फलस्वरूप उसको मोह-राग-द्वेषादि भाव होने लगते हैं। यह है वास्तविक स्थिति अज्ञानी आत्मा के संयोग करने की। इसी का समर्थन समयसार कलश १६४ से प्राप्त होता है। श्लोक निम्नप्रकार हैश्लोक - न कर्म बहुलं जगन्न चलनात्मकं कर्म वा, न नैककरणानि वा न चिदद्विधो बंधकृत् । यदैक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः स एव किल केवलं भवति बुधहेतुर्नृणाम् ।। १६४ ।। उपरोक्त कलश की अन्तिम दो पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि उपयोग रूपी भूमि में, रागादि को (जो ज्ञान में ज्ञात हुए हैं) भलेप्रकार से लाकर उनके साथ एकत्व कर लेता है, एकमात्र वही अर्थात् रागादि के साथ एकत्व करना ही वास्तव में बंध का कारण है। - इसके अतिरिक्त समयसार गाथा ३४४ की टीका के अन्तिम पैरा से भी उपरोक्त आशय प्राप्त होता है। टीकार्थ निम्न है - टीकार्थ- “इसलिए ज्ञायक भाव सामान्य अपेक्षा से ज्ञान स्वभाव से अवस्थित होने पर भी, कर्म से उत्पन्न होते हुए मिथ्यात्वादि भावों के ज्ञान के समय, अनादि काल से ज्ञेय और ज्ञान के भेदविज्ञान से शून्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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