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________________ ११२) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ होने से विपरीतता के साथ पर्याय का भी निषेध करना पड़ता है। इसलिए विपरीतता का अभाव करने के लिए पर्याय को अपना नहीं माना जा सकता । जैसे अपने घर के चूहों को अपने घर में उत्पन्न होने के कारण घर का सदस्य तो नहीं माना जा सकता। विकारी पर्याय की मेरे क्षेत्र में विद्यमानता तथा मेरे ज्ञान में ज्ञात होने का तो निषेध जिनवाणी में भी नहीं किया गया है, निषेध तो मात्र मेरा मानने का एवं उपादेय बुद्धि रखने का किया गया है। उनकी विद्यमानता होना, आत्मा को कोई हानि नहीं पहुंचाता; अगर विद्यमानता ही बाधक होती तो ज्ञानी को अपनापन करा देती तथा केवली भगवान के ज्ञान में ज्ञात होने पर भी उनको हानि कर देती। लेकिन उसको अपना मानने का फल तो मिथ्यात्व होगा एवं उसमें जितने अंश में ज्ञानी भी अटकेगा तो चारित्र मोह का बंध उसको भी अवश्य होगा लेकिन ज्ञान में ज्ञात हो जाने मात्र से तो कोई बंध नहीं होता। तात्पर्य यह है कि पर्याय की विपरीतता से किंचित् मात्र भी संबंध आत्मा का घातक है। प्रश्न - पर्याय में से विपरीतता को ही दूर कैसे किया जा सकेगा? उत्तर - विकृति अन्य के संयोग से उत्पन्न होती है। इसी कारण विकार को जिनवाणी में संयोगीभाव कहा गया है। अत: पर्याय में जो विपरीतता दिखती है, वह तो संयोगजनित ही है; आत्मा उसका उत्पादक नहीं है । अतथ् संयोग का अभाव होने पर संयोगी भाव को स्वत: अभाव हो जावेगा, फलत: आत्मा का स्वाभाविक परिणमन होता रहेगा। प्रश्न - किसी द्रव्य का किसी के साथ संयोग तो हो नहीं सकता फिर इन भावों को संयोगीभाव कैसे कहा जाना चाहिए? । उत्तर - किसी भी वस्तु में, अन्य वस्तु का अंश भी मिल नहीं सकता, अपने द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को छोड़कर कोई वस्तु अन्य में प्रवेश कर ही नहीं सकतीं। लेकिन ज्ञान का स्वभाव सामर्थ्य ऐसा है कि वह स्वक्षेत्र में रहकर ही स्व को जानते हुए उसी में विद्यमान परज्ञेयों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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