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________________ आत्मा अरहन्त सदृश कैसे ? ) (१११ लक्षण तो एकमात्र चेतना ही है। अत: चेतना अर्थात् ज्ञाता दृष्टा स्वभाव की मुख्यता से अरहन्त के आत्मा को समझेंगे तो उनका द्रव्य भी चेतन, चेतना गुण भी चेतन तथा उनकी पर्याय भी चेतना को ही प्रगटाती हुई है। अर्थात् उनको द्रव्य से देखो तो ज्ञाता, गुण से देखो तो ज्ञान दर्शन स्वभाव और पर्याय से देखो तो जानने रूपी कार्य (परिणमन ) इसप्रकार तीनों ही ज्ञान स्वरूपी हैं। इस ही दृष्टि से अपने आत्मा को देखो तो मेरा भी आत्मा तो ज्ञाता स्वभावी, गुण से देखो तो ज्ञान स्वभावी तथा पर्याय से देखो तो ज्ञान के परिणमन करती हुई जानन पर्याय, इसप्रकार निश्चय से दोनों में अन्तर नहीं रहता। यह ही वास्तव में अपने आत्मा को जानने की विधि है, जिसकी ओर आचार्यश्री का संकेत है। अब ज्ञान के स्वभाव पर विचार करें तो ज्ञान का तो स्वभाव ही स्व-पर प्रकाशक है। अत: ज्ञान की पर्याय जब भी उत्पन्न होती है, स्व को स्व के रूप में एवं पर को पर के रूप में जानती हुई ही उत्पन्न होती है। यह जो ज्ञानस्वभाव है वह तो अरहन्त की आत्मा में तथा अज्ञानी की आत्मा दोनों में एक समान रूप से ही कार्य करता है। साथ ही ज्ञान पर के पास गये बिना तथा पर की ओर सन्मुखता करे बिना ही, अपने क्षेत्र में रहकर ही जानने का कार्य करता है, वह भी अपनी योग्यतानुसार । तात्पर्य यह है कि ज्ञेय की किसीप्रकार की पराधीनता बिना ही स्वतंत्रता से जानने की क्रिया करता है। विकारी पर्याय का क्षेत्र आत्मा प्रश्न - विकारी पर्याय भी तो आत्मा के असंख्यात प्रदेशों में ही उत्पन्न होती है ? उत्तर - पर्याय का स्वक्षेत्र तो अपना द्रव्य ही होता है, अत: पर्याय की विद्यमानता का निषेध तो किया नहीं जाता? लेकिन वह पर्याय अपने गुण के स्वभाव से विपरीत परिणमे तो उसकी विपरीतता को उस पर्याय का स्वभाव तो नहीं माना जा सकता? विपरीतता पर्याय में व्याप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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