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________________ १२०) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ होते। समयसार नाटक निर्जरा अधिकार सवैया ४८ में सात भय निम्न बताये हैं - इहभव भय, परलोक भय, मरण, वेदना जात। अनरक्षा, अनगुप्ति भय, अकस्मात् भय सात ॥ ४८ ॥ उपर्युक्त भयों के अभाव का कारण यही है कि पूर्व में शरीर को अपना मानने के कारण उपर्युक्त सातों भय, उत्पन्न होते थे, लेकिन जब शरीर से अहंबुद्धि हटकर अपने त्रिकाली ज्ञायक में अहंपना हो गया तो, उपर्युक्त भय जैसे मरण होना, वेदना होना आदि - आदि मेरे (ध्रुवभाव) को तो होते नहीं और जिसमें हो रहे हैं, वह मैं नहीं, आदि-आदि प्रकार की मान्यता हो जाने से ज्ञानी को तत्संबंधी भयों एवं आकुलता का भी क्रमश: अभाव होता जाता है। __मैं ज्ञायक एवं निराकुल आनंद स्वभावी स्वयं ही हूँ। मेरा स्वभाव स्वपर प्रकाशी होने से, मैं तो सभी ज्ञेयों से तटस्थ रहते हुए, स्व के माध्यम से जानने वाला मात्र हूँ। ज्ञेय में कुछ भी करने धरने का सामर्थ्य अरहंत भगवान के समान मेरे में भी नहीं है। ऐसी श्रद्धा जागृत होने से ज्ञेय मात्र के प्रति उपेक्षाबुद्धि जागृत हो जाती है। ज्ञेयों के ज्ञात होते समय ही वे मेरे में आ गये अथवा मैं उन रूप हो गया ऐसा भ्रम नहीं होता। फलस्वरूप उनके प्रति एकत्व बुद्धि उत्पन्न नहीं होती तो मिथ्यात्व का उदय भी कैसे होगा? फलत: एकत्वबुद्धि के राग द्वेष भी नहीं होंगे अर्थात् संसार ही खड़ा नहीं होगा। इसप्रकार उपर्युक्त मान्यता प्रगट होते ही संसार के अभाव की प्रक्रिया का, प्रारंभ हो जाता है। अरहंत के ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा का ज्ञान भगवान् अरहंत की आत्मा ही यथार्थ आत्मा है। जैसे १०० टंच का स्वर्ण ही यथार्थ स्वर्ण है। शुद्ध स्वर्ण, द्रव्य से स्वर्ण है ही, गुणों का पूर्ण विकास होने से पर्याय में भी वह शुद्ध स्वर्ण ही है। उसीप्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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