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________________ निश्चयनय एवं व्यवहारनय) (१०३ माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य ॥७॥ अर्थ - मुनिराज अज्ञानी को समझाने के लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसका उपदेश देते हैं। जो केवल व्यवहार ही को जानता है, उसे उपदेश ही देना योग्य नहीं है । तथा जैसे कोई सच्चे सिंह को न जाने उसे बिलाव ही सिंह है उसीप्रकार जो निश्चय को नहीं जाने उसके व्यवहार ही निश्चयपने को प्राप्त होता है।" उक्त ग्रंथ में स्पष्ट संकेत है कि व्यवहारनय वस्तु को जैसी कहता है वैसी ही वस्तु को मान लेने वाला तो उपदेश का पात्र भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि वस्तु तो निश्चय के द्वारा है वैसी ही है, व्यवहारनय तो उस ही वस्तु का अनेक उपायों से ज्ञान कराता है अर्थात् समझाता है। पण्डित टोडरमल जी साहब ने स्वयं इसी पृष्ठ पर प्रश्न उठाकर कहा है कि - "व्यवहारनय परको समझाने के लिए ही है या अपने को भी कुछ लाभ का कारण है।" "समाधान - आप भी जब तक निश्चयनय से प्ररूपित वस्तु को नहीं पहिचानें तब तक व्यवहार मार्ग से वस्तु का निश्चय करें। इसलिए निचली दशा में अपने को भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहार को उपचार मात्र मानकर उसके द्वारा वस्तु को ठीक प्रकार समझे तब तो कार्यकारी हो, परन्तु यदि निश्चयवत् व्यवहार को भी सत्यभूत मानकर वस्तु इसप्रकार ही है - ऐसा श्रद्धान करे तो उल्टा अकार्यकारी हो जावे।” इसप्रकार व्यवहारनय वस्तुस्वरूप समझने के लिये अत्यन्त उपयोगी है, लेकिन श्रद्धान अर्थात् स्व मानने के लिए तो एकमात्र निश्चयनय का विषय ही है वही, अत्यन्त उपादेय है एवं समस्त द्वादशांग का सार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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