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________________ १०२) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ किये - तब मनुष्य जीव है, नारकादि जीव हैं, इत्यादि प्रकार सहित उन्हें जीव की पहिचान हुई।” __ “अथवा अभेद वस्तु में भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुण पर्याय रूप जीव के विशेष किये, तब जानने वाला जीव है, देखनेवाला जीव है - इत्यादि प्रकार सहित उनको जीव की पहिचान हुई। तथा निश्चय से वीतराग भाव मोक्षमार्ग है, उसे जो नहीं पहिचानते उनको ऐसे ही कहते रहें तो वे समझ नहीं पावें । तब उनको व्यवहारनय से, तत्त्व श्रद्धान-ज्ञानपूर्वक, परद्रव्यों के निमित्त मिटने की सापेक्षता द्वारा व्रत, शील, संयमादि रूप वीतराग भाव के विशेष बतलाये, तब उन्हें वीतरागभाव की पहिचान हुई ।” इसीप्रकार अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चय के उपदेश का नहीं होना जानना। व्यवहारनय प्रयोजनभूत कैसे ? उपर्युक्त प्रमाणों द्वारा समझ में आ जाना चाहिए कि व्यवहारनय के द्वारा भी निश्चयनय के विषयभूत वस्तु का ज्ञान कराया जाता है। यथार्थत: व्यवहार का कार्य ही निश्चय का ज्ञान कराना है, इसी में उसकी सार्थकता है । व्यवहारनय निश्चय का प्रतिपादक है, उसका प्रतिपाद्य तो निश्चयनय की विषयभूत वस्तु ही है। इसप्रकार व्यवहारनय वस्तु का ज्ञान कराने के लिये निश्चय का साधक भी कहा जाता है, परम्परा कारण भी कह दिया जाता है। इस पर प्रश्न होता है कि व्यवहारनय, पर को समझाने में कैसे उपयोगी है? ऐसे प्रश्न का समाधान मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २५३ पर पुरुषार्थसिद्धयुपाय की गाथा ६-७ का उद्धरण करते हुए निम्न प्रकार दिया अबुधस्य बोधनार्थं मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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