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निश्चयनय एवं व्यवहारनय )
(९९ सामान्यांश, अकर्तृत्वस्वभावी, अभेद, अखण्ड, परम निरपेक्ष, अनुपचारी, परमशुद्ध ज्ञानानंदस्वभावी स्व आत्मतत्त्व वही एकमात्र निश्चयनय का विषय है, उसका जानना ही निश्चयनय है और अहंपना स्थापन करने योग्य श्रद्धा का श्रद्धेय भी वही है, अत: यही सत्यार्थ है। इस ही में स्वपने का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है।
__उपरोक्त द्रव्यार्थिकनय के विषय के अतिरिक्त अपना पर्यायांश अथवा गुण भेदों के साथ-साथ जो कुछ भी बच जाता है वह सब पर्यायार्थिकनय का विषय है। उनको पर जानते व मानते हुए उस रूप अपने आप को नहीं मानना, उनमें अहंपना स्थापन नहीं करना, ऐसा ज्ञान कराना ही, उस कथन का उद्देश्य है।
अपने ही अभेद द्रव्य में भेद कल्पना करके उत्पन्न अभेद द्रव्य को समझना और ज्ञान द्वारा भी उस रूप से द्रव्य को देखना, अभेद में भेद करने वाला व्यवहारनय है । इसका उद्देश्य भी अभेद द्रव्य का ज्ञान कराना ही है।
दूसरा लक्षण है अन्य द्रव्य का आत्मद्रव्य में उपचार करके अनुपचरित वस्तु को समझाने वाला व्यवहारनय है, इसका विस्तार बहुत है। संक्षेप में इसप्रकार :
उपचार का स्वरूप उपचार का लक्षण आलाप पद्धति में कहा है कि -
मुख्याभावेसति प्रयोजने निमित्ते च उपचारः प्रवर्तते अर्थ - मुख्य के अभाव होने पर, प्रयोजन के लिए अथवा निमित्त का ज्ञान कराने के लिये उपचार का प्रवर्तन होता है। उपरोक्त लक्षण के अनुसार, जिसमें उपचार किया जावे वहाँ मुख्य का तो अभाव हो, और कोई प्रयोजन सिद्ध करना हो अथवा निमित्त का ज्ञान कराना हो, तो वहाँ ही उपचार का प्रवर्तन होता है। जैसे पिताजी की फोटो को पिताजी कह दिया जाता है। फोटो में पिताजी का अभाव है लेकिन पिताजी का परिचय
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