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________________ ९८) ( सुखी होने का उपाय भाग-३ कथन है और घी का संयोग देखकर घी का घड़ा कहना व्यवहारनय का कथन है।" (३) “जिस द्रव्य की जो परिणति हो उसे उस ही का कहना निश्चयनय है और उसे ही अन्य द्रव्य की कहने वाला व्यवहारनय है।" (४) “व्यवहारनय स्वद्रव्य को, परद्रव्य को व उनके भावों को व कारण-कार्यादिक को किसी को किसी से मिलाकर निरूपण करता है तथा निश्चयनय उन ही को यथावत् निरूपण करता है किसी को किसी में नहीं मिलाता है।" उपर्युक्त परिभाषाओं के द्वारा दो द्रव्यों की भिन्नता समझने के लिए दोनों नयों के संबंध में और भी ज्यादा स्पष्टीकरण प्राप्त होता है। निश्चयनय की परिभाषा तो सब जगह एक सी ही है, मात्र शब्दों का अंतर होकर भी वाच्य अर्थात् विषय तो मात्र अभेद अखण्ड स्व आत्मा ही है, अंतर तो मात्र व्यवहारनय की व्याख्या में ही है। जैसे - १.अभेद वस्तु को भेद करके भेद रूप अथवा उपचार करके उपचार रूप कहता है। २. व्यवहारनय स्वआश्रय नहीं रहेकर पराश्रयरूप वस्तु को बताता है ३. स्वद्रव्य के भाव को स्व कहना निश्चय और अन्य द्रव्य के भावों को स्वद्रव्य के भाव रूप कहना, व्यवहार। ४. स्वद्रव्य की परिणति को स्व की कहना निश्चय और परद्रव्य की परिणति को स्वद्रव्य की कहना व्यवहारनय । ५. व्यवहारनय = स्वद्रव्य - परद्रव्य को, उनके भावों को, कारण कार्यादि को, एक-दूसरे में मिलाकर किसी के कार्य को, किसी अन्य के बताता है, वह व्यवहारनय। इसप्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं को और भी संक्षेप करें तो संक्षेप में निम्न आशय प्रगट होता है कि द्रव्यार्थिकनय का विषयभूत ध्रुवांश, For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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