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________________ १०० ) ( सुखी होने का उपाय भाग- ३ कराने के प्रयोजनवश फोटो में पिताजी का उपचार किया गया। इसीप्रकार गुरु के उपदेश से मुझे ज्ञान हुआ, अरहंत के जैसा मेरा आत्मा, अग्नि से पानी गरम हुआ आदि निमित्त का ज्ञान कराने के लिए भी स्वभाव अर्थात् उपादान का उपचार निमित्त में किया जाता है । इन कथनों द्वारा कथित वस्तु में, मुख्य (उपादान) तो है नहीं लेकिन उपादान का ज्ञान कराने के लिये भी स्वभाव अर्थात् उपादान का उपचार निमित्त में किया जाता है तथा उसे कारण भी कह दिया जाता है। इसीप्रकार आत्मा को क्रोधी, मानी, मायावी, ज्ञानी, अज्ञानी आदि कहना भी उपचार है, क्योंकि आत्मा तो क्रोधी आदि होता नहीं, मात्र एक समय की पर्याय के कार्य को आत्मा का कहना यह भी उपचार अर्थात् व्यवहार कथन है । इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना । निश्चय का विषय ही आश्रय करने योग्य इसप्रकार यह तो स्पष्ट है कि निश्चय का विषय तो अपरिवर्तनीय, अभेद एवं बिना कोई मिलावट वाला शुद्ध है और वही मैं हूँ । उस ही में मैंपनां स्थापन करने से ही मेरा प्रयोजन सिद्ध होगा शान्ति प्राप्त होगी । अंतः आत्महित के लिये यही एकमात्र भूतार्थ, सत्यार्थ एवं आश्रय करने योग्य है । व्यवहारनय का विषय तो सब ही अभूतार्थ है, असत्यार्थ है तथा परिवर्तनीय होने से आश्रय करने योग्य नहीं है। क्योंकि वस्तु ही स्वयं ऐसी नहीं है जैसी व्यवहारनय बताता है । इसी आशय को मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ २४९ पर समयसार ग्रन्थ का प्रमाण देते हुए बताया है कि . " व्यवहार अभूतार्थ है, सत्य स्वरूप का निरूपण नहीं करता, किसी अपेक्षा उपचार से अन्यथा निरूपण करता है । तथा शुद्धनय जो निश्चय है, वह भूतार्थ है, जैसा वस्तु का स्वरूप है वैसा निरूपण करता है ।” समयसार गाथा ११ में कहा है कि – “जो जीव भूतार्थ का आश्रय लेता है वह जीव निश्चय से ( वास्तव में) सम्यग्दृष्टि है ।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001864
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2000
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size8 MB
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