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(सुखी होने का उपाय सदृश स्वभाववाला, शास्त्रीय भाषा में परमपारिणामिक भावरूप "द्रव्यांश। दूसरी ओर है क्षण-क्षण में उत्पाद, व्यय को प्राप्त, अनेक प्रकार से बदलता हुआ "पर्यायांश"। इन दोनों अंशों को मिलाकर मेरा पूरा आत्मा है। इन दोनों में से अपनापन स्थापन करने के लिये कौन से अंश को अपना मान? क्षण-क्षण में नये-नये रूप धारण करता हआ समय-समय जन्म-मरण करनेवाला पर्यायांश, वह अहंपना स्थापन करने योग्य कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। ध्रुव एकरूप रहनेवाला द्रव्यांश है, वही एकमात्र अहम्पना अर्थात् "मैं" मानने योग्य है। अतः सहज ही उस ही में मेरे को आन्तरिक प्रेम उमड़ेगा। उस ही में तन्मय होने की सहजवृत्ति उठे बिना रह ही नहीं सकती। ऐसी स्थिति में पर्यायांश श्रद्धा में सहज ही उपक्षणीय हुए बिना रह ही नहीं सकता, क्योंकि श्रद्धा तो एक में ही मैंपना स्थापन कर सकती है। इसप्रकार आत्मानुभव प्राप्त ज्ञानी जीव की श्रद्धा में तो मात्र एक परम पारिणामिकभावरूप स्थाई द्रव्यांश ही हमेशा अपेक्षा योग्य रहता है। पर्यायांश हमेशा उपेक्षणीय ही रहता है। यह सब कथन श्रद्धा की मुख्यता से है। साथ ही रहनेवाला. सम्यक् दशा को प्राप्त ज्ञान, श्रद्धा ने जिसमें अहम्पना स्थापन किया है ऐसे उस द्रव्यांश को परम उपादेयरूप जानता है। श्रद्धा ने जिसमें परपना स्थापन कर जिससे प्रेम करना छोड़ दिया है, ऐसे पर्यायांश को उपेक्षित रूप में जानता हुआ प्रवर्तता है। उसी समय चारित्रगुण भी, श्रंद्धा ज्ञान ने जिसको स्व-अपना माना है उस ही में आचरण अर्थात् लीन होने की चेष्टा करने लगता है। पूर्व की अज्ञानदशा में पर्यायांश में श्रद्धा ने अपनापना मान रखा था, तब उसमें ही आचरण एकमेक होने की चेष्टा करता था। इसप्रकार जबतक पर्याय में पूर्ण
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