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________________ सुखी होने का उपाय) निर्विकारी दशा प्राप्त नहीं हो जाती, तबतक सम्यकज्ञान, वीतरागी अंश में उपादेयबुद्धि तथा रागांश में हेयबुद्धि सहित प्रवर्तता ही रहता है। अतः उस ज्ञानी आत्मार्थी को कभी स्वच्छन्दता होने का अवकाश ही नहीं हो सकता। ज्ञानी का ज्ञान इतना विवेकपूर्ण हो गया है कि वह रागांश मात्र को ही जहर के समान मानते हुए पूर्ण वीतरागता प्रगट करने के लिये लालायित हो रहा है। ऐसे उस ज्ञानी को पर्याय में होनेवाले रागपोषक विकल्पों में स्वच्छन्दता उत्पन्न करनेवाला प्रेम उत्पन्न हो, यह असम्भव है। इस स्थिति को प्राप्त जीव को ही यथार्थ में पर्याय उपेक्षणीय होती है। लेकिन कोई अज्ञानी राग में रुचि रखनेवाला ऐसे कथनों को, अपने रागपोषण के लिए हथियार बनाकर दुरुपयोग करे तो यह तो उस जीव का ही महान दोष है, कथन का तो कोई दोष है नहीं। पंडित टोडरमलजी साहब ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में पृष्ठ २९२ पर कहा भी है कि (82 "जैसे गधा मिश्री खाकर मर जावे तो मनुष्य तो मिश्री खाना नहीं छोड़ेंगे। उसीप्रकार विपरीतबुद्धि अध्यात्मग्रन्थ सुनकर स्वच्छन्द हो जाये तो विवेकी तो अध्यात्मग्रन्थों का अभ्यास नहीं छोड़ेंगे। इतना करें कि जिसे स्वच्छन्द होता जाने, उसे जिसप्रकार वह स्वच्छन्द न हो उसप्रकार उपदेश दे। तथा अध्यात्मग्रन्थों में भी स्वच्छन्द होने का जहाँ-तहाँ निषेध करते हैं। इसलिये जो भलीभांति उनको सुने वह तो स्वच्छन्द होता नहीं, परन्तु एक बात सुनकर अपने अभिप्राय से कोई स्वच्छन्द हो तो ग्रन्थ का तो दोष है नहीं, उस जीव ही का दोष है। * आगे कहते हैं किः Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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