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________________ सुखी होने का उपाय) (80 के सूत्र १ में कहा है कि "सम्यग्ज्ञानरूपी प्रमाण का फल तत्संबंधी अज्ञान के नाश के साथ-साथ जानी हुई हेय, उपादेय एवं ज्ञेय वस्तु के संदर्भ में क्रमशः त्याग, ग्रहण एवं उपेक्षा (माध्यस्थभाव, उदासीनभाव) है। " उपरोक्त समस्त कथन से यह स्पष्ट है कि उपरोक्त प्रकार से सात तत्त्वों की यथार्थ समझ प्राप्त किए बिना, अपने त्रिकाली ज्ञायकभाव का स्वरूप समझ में नहीं आ सकता, तथा उसकी समझ के बिना, तथा पर्याय की यथार्थ स्थिति समझे बिना, अपनी वर्तमान दशा का अभाव कर, पूर्णदशा प्राप्त करने का मार्ग ही ज्ञान की पकड़ में नहीं आ सकता । यथार्थ मार्ग ज्ञान में आये बिना, उसपर आचरण तो हो ही कैसे सकता है? अतः उपरोक्त प्रकार से यथार्थ समझ प्राप्त कर, अपने त्रिकाली भावरूपी स्वज्ञेय में अपनापन स्थापन कर, समस्त परज्ञेयों के प्रति परपना श्रद्धा में दृढ़ करना चाहिये तथा अपनी आत्मपरिणति की परसन्मुखता हटाकर, स्वसन्मुख करने का महान पुरूषार्थ प्रगट करना चाहिये। ऐसी दशा प्राप्त जीव का ज्ञान सम्यक् होकर, यथार्थ भेदज्ञान का उदय होता है। और उस के द्वारा वह पर्याय में वर्तती अवस्थाओं में हेय, उपादेय बुद्धिपूर्वक विकार का अभाव करता-करता निर्विकारी दशा प्राप्त कर लेता है। यही तत्त्वार्थ श्रद्धान की आत्मोपलब्धि में महान उपयोगिता है। पर्याय उपेक्षणीय कहने से स्वच्छन्दता की संभावना का निराकरण अपनी आत्मा को संक्षेप में समझा जावे तो एक ओर तो अनंत गुणों का समुदाय, त्रिकाल एक सरीखा, सिद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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