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________________ (सुखी होने का उपाय . ठीक इसीप्रकार आत्मार्थी जीव को परम उपकारी श्रीगुरू के उपदेश द्वारा जब यह विश्वास जम जाता है कि अभी तक मैंने अपने को अपना मानना भूलकर, जो अपने कभी नहीं थे और न अपने हो सकते हैं, उनको मेरा मानकर उन्ही का रक्षण-भरण-पोषण आदि में लगा रहता आया है। इस ही कारण अनादि काल से दुःखी होता चला आ रहा हैं। लेकिन अब समझ में आने के बाद यह विश्वास में बैठ गया कि मैं तो सबसे भिन्न एकमात्र अत्यन्त निर्भार अकर्ता स्वभावी, आनंदस्वरूपी, त्रिकाल एकरूप रहनेवाला ज्ञायक आत्मा हूँ, अन्य जितने भी मेरे ज्ञान में ज्ञात हो रहें हैं वे सब मेरे से अन्य, मात्र स्व के माध्यम से परज्ञेय के रूप में ज्ञान में ज्ञात हो जाते हैं तो भी मेरे साथ उनका मात्र उपेक्षणीय ज्ञाता ज्ञेय संबंध है। उसके विपरीत मेरे ज्ञायकभाव के साथ तो मेरा तन्मय होकर जाननेरूप संबंध है। ऐसा विश्वास जाग्रत हो जाने पर उस आत्मार्थी का उन उपेक्षणीय समस्त पररूप परिकर के साथ कैसा व्यवहार रहेगा यह किसी को बताना नहीं पड़ेगा। बल्कि उस आत्मार्थी का उन सबके साथ उपेक्षारूप, हेयरूप अंतरंग आचरण ही होगा उन सब के साथ संबंधों का अभाव होने रूप आचरण ही यथार्थ में सच्चा व्यवहार है। उसी को जिनवाणी में व्यवहार सम्यक्चारित्र संज्ञा प्राप्त है। इस ही सब का कथन चरणानुयोग के ग्रन्थों में संग्रहीत है। इस ही प्रक्रिया को निश्चयचारित्र एवं उसके साथ ही वर्तनेवाले शुभभाव एवं तदनुकूल बाह्य आचरण को व्यवहार चारित्र के माध्यम से कथन किया गया है। इसका विस्तार से विवेचन समझने के लिये प्रवचनसार ग्रन्थ की चरणानुयोग सूचक चूलिका का अभ्यास करना आत्मार्थी का कर्तव्य है। आचार्य माणक्यनंदि ने परीक्षामुख पंचम परिच्छेद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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