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________________ (76 सुखी होने का उपाय) है । संक्षेप में कहो तो इसप्रकार का भेदज्ञान प्राप्त कर यह जीव प्रमाणरूप द्रव्यों से संबंध तोड़कर मात्र स्वद्रव्य में ही अपने-आपको मर्यादित कर लेता है। प्रमाणरूप द्रव्यों से भेदज्ञान किए बिना कभी किसी को अपने विकारी-निर्विकारी पर्यायों से भेदज्ञान उत्पन्न करना असंभव है। इसप्रकार इस अपेक्षा में प्रमाणरूप स्वद्रव्य तो स्वज्ञेय है और बाकी अन्य सभी परज्ञेय होने से, अत्यन्त उपेक्षा करने योग्य है, ऐसी मान्यता, विश्वास श्रद्धा उत्पन्न करना ही इस अपेक्षा का उद्देश्य है। दूसरा दृष्टिकोण विकारी-निर्विकारी पर्यायों के बीच छुपा हुआ जो सदा शाश्वत एकरूप रहनेवाला स्थाई ज्ञायकभाव है, उसको पहिचानकर उसमें अहंपना "मैंपना" स्थापन करना है। इस अपेक्षा में स्थाई एकरूप रहनेवाले ज्ञायकतत्त्व को स्वज्ञेय कहकर इसके प्रति प्रेम व आकर्षण उत्पन्न कराना है । उस स्थायी ज्ञायकभाव के अतिरिक्त, जो कुछ भी स्व द्रव्य के गुण व पर्यायों का समस्त परिकर है, उस को ही पर बनाकर परज्ञेय कहकर उन सबके प्रति आकर्षण, प्रेम तथा अपनेपन का अभिप्राय छुड़ाना है। तथा उनके रक्षण आदि की चिन्ताओं से मुक्त कर आत्मा को अकर्ता, ज्ञायकस्वभावी सिद्ध करके निर्धार कराने का प्रयास किया गया है । इस दशा को प्राप्त जीव को ही आत्मोपलब्धि पूर्वक सम्यग्दर्शन का उदय होकर, प्रत्यक्ष अतीन्द्रिय आनन्द की अनुभूति प्रगट हो जाती है। यहां से ही मोक्षमार्ग प्रारंभ हो जाता है। यह दृष्टिकोण अध्यात्म का प्राण है। इस दृष्टिकोण को अपनाये बिना किसी को भी मोक्षमार्ग का प्रारंभ ही नहीं होता। इस अपेक्षा में जिस त्रिकाली ज्ञायकभाव को, स्वज्ञेय कहकर उसके प्रति आकर्षण उत्पन्न कराकर अपने ज्ञान (उपयोग ) को स्वज्ञेय के सन्मुख करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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