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________________ 77) (सुखी होने का उपाय की प्रेरणा दी गई है; उसकी उपलब्धि द्रव्य दृष्टि के द्वारा ही होती है। वह ज्ञायकभाव द्रव्यार्थिकनय का ही विषय है। उस ज्ञायकभाव के अतिरिक्त, समस्त परज्ञेय, जिसमें अभी तक अहंपना अपनापना मानकर दुःखी होता चला आ रहा है, उसके प्रति आकर्षण समाप्त करया गया । तथा अपने ज्ञान (उपयोग ) की उनके प्रति सन्मुखता छुड़ाकर, उसी ज्ञान को आत्मसन्मुख कराया जाता है। समस्त परज्ञेय पर्यायार्थिकनय का विषय कहा जाता है और वह सब परिवर्तनशील होने से उपेक्षणीय ही रहता है। द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नय का स्वरूप एवं उसके ज्ञान की आत्मोपलब्धि में उपयोगिता, आदि के बारे में चर्चा आगे करेंगे। उपरोक्त समस्त चर्चा एकमात्र श्रद्धा अर्थात् मान्यता सही करने की अपेक्षा से की गयी है। अभीतक यह जीव अपने ही स्वयं के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ पाने के कारण जो अपने नहीं हैं तथा कभी भी अपने हो नहीं सकते, उनको अपना मानकर उनही के रक्षण, पोषण आदि में अनेक जीवन बिताता चला आ रहा है। उसको श्री गुरू सच्चे मार्ग दिखाकर इसके स्वयं के सच्चे स्वरूप का ज्ञान कराकर एवं जिनको अबतक अपना मानता था, उन सबके प्रति परपना सिद्ध करके इसकी मिथ्या मान्यता बदलकर, सच्ची मान्यता, विश्वास, श्रद्धा उत्पन्न करते हैं। "जिनको अभी तक अपना मानता चला आ रहा था वे तेरे नहीं हैं और हमने बताया है वही स्वज्ञेय मात्र ही एक तू है" ऐसी श्रद्धा उत्पन्न कराई गई है। इस ही सच्ची Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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