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________________ 751 (सुखी होने का उपाय उनको पर मानकर उनके प्रति अत्यन्त उपेक्षाबुद्धि खड़ी करके साम्यभाव प्राप्त करना कर्तव्य है। अन्दर उठनेवाले हेय भावों का स्वजीवतत्त्व के आश्रयपूर्वक क्रमक्रम से अभाव कर उपादेय तत्त्वों में क्रमशः वृद्धि प्राप्त करके सर्वथा उपादेय अवस्था की प्राप्ति द्वारा अनंत सुखी होकर अमर हो जाना चाहिए। यही हेय-ज्ञेय-उपादेय के माध्यम से सात तत्त्वों की यथार्थ समझ का फल है। ३. स्वज्ञेयपरज्ञेय के भेद से सात तत्त्व सामान्यतया समस्त ज्ञेय पदार्थों में स्वज्ञेय, परज्ञेय का वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से किया जाता है। पहला दृष्टिकोण तो छह द्रव्यों के समूह रूप लोक में से सभी द्रव्यों से भिन्न अपने अस्तित्त्व को छांटने के लिये निर्णय किया जाता है। इस अपेक्षा से समस्त विकारी-निर्विकारी पर्यायों सहित अनंत गुण का समूह रूप अपना स्वद्रव्य, स्वज्ञेय माना जाता है। यह प्रमाण ज्ञान का विषय होता है, जिसको भेदज्ञान प्रणालि में प्रमाण का द्रव्य कहा जाता है। इस अपेक्षा का सबसे बड़ा उपकार यह है कि अपने द्रव्य के अतिरिक्त यह जीव अन्य द्रव्यों में जैसे स्त्री, पुत्र, मकान, जायदाद आदि दूरवर्ती एवं शरीर, कर्म आदि निकटवती अन्य द्रव्यों में अनादि से अपना अस्तित्त्व मानता चला आ रहा है अर्थात ये मेरे हैं और मैं इनका हँ, ऐसी मिथ्या मान्यता के द्वारा इनके परिवर्तनों को अपने अनुकूल करने की चेष्टा करने में जीवन लगाता चला आ रहा है, उन सभी को आत्मा से. अन्य तथा मात्र परज्ञेय मान लेने पर उनके परिणमनों के प्रति उपेक्षाबुद्धि उत्पन्न हो जाती है। फलतः तत्संबंधित अशांति से बच जाता है अर्थात आत्मोपलब्धि के लिए कुछ पात्रता प्रगट कर लेता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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