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________________ सुखी होने का उपाय) (74 हो जाती है और अपने ही स्वतत्त्व त्रिकाली भाव में लीन होकर एकमेक होकर अनंत काल तक आत्मानंद में ऐसी गर्क हो जाती है कि बाहर ही नहीं निकलती अर्थात् द्रव्य पर्याय एकमेक हो जाते हैं। इसप्रकार जीव तत्त्व, अजीव तत्त्व को द्रव्यांश के माध्यम से एवं आस्रव बंध संवर निर्जरा और मोक्ष पांचों तत्त्व, पर्यायांश के द्वारा समझते हुये एक अपने त्रिकाली ज्ञायक भाव स्वतत्त्व में ही अपनापन स्थापन कर श्रद्धा में सबके प्रति उपेक्षाभाव प्रगट करना ही एक मात्र कर्तव्य है। २. हेय, ज्ञेय, उपादेय के भेद से सात तत्त्व उपरोक्त सात तत्त्वों में से, जीवतत्त्व ज्ञेय तो है ही, साथ ही परम उपादेय भी है, लेकिन प्रमाणवाला जीव द्रव्य तो एकमात्र ज्ञेय ही है, हेय उपादेय भी नहीं है, मात्र उपेक्षणीय ज्ञेय है। आस्रव एवं बंध तत्त्व तो हेय ही है, उन ही के विशेष भेद पुण्य, पाप भी हेयतत्त्व के ही अवयव होने से हेय ही हैं, उनमें पुण्यतत्त्व को आगम में कहीं-कहीं किसी अपेक्षा से कथंचित् उपादेय भी कहा है, उसकी चर्चा निश्चय - व्यवहारनय के प्रकरण में अलग से करेंगे। यहाँ तो निर्विकारी पर्याय की अपेक्षा से सभी प्रकार की विकारी पर्यायें अर्थात् आस्रव-बन्ध को हेयतत्त्व में ही लिया गया है। संवर एवं निर्जरा पर्याय एकदेश उपादेय है तथा मोक्ष पर्याय सर्वथा उपादेय है। इसप्रकार हेय, ज्ञेय, उपादेय के भेद से सात तत्त्वों को भलेप्रकार समझकर, विश्वास करना चाहिए। एक मात्र जीवतत्त्व में ही अपनापन स्थापन कर अर्थात् वह जीवतत्त्व मैं ही हूँ, ऐसा अहंपना स्थापन करना चाहिए। तथा अन्य जितने भी अजीवतत्त्व हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001863
Book TitleSukhi Hone ka Upay Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & philosophy
File Size6 MB
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