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सुखी होने का उपाय)
(72 ज्ञान की पकड़ में नहीं आवेगा। अतः: अनंत द्रव्यों से भेदज्ञान पूर्वक अपने आप में अपना अस्तित्व विश्वास में लाने के लिये गुण पर्यायात्मक जीव द्रव्य का ज्ञान अत्यन्त उपकारी है। लेकिन जिस विकारी-निर्विकारी पर्यायों सहित जीव द्रव्य का जब आत्मज्ञान के लिये अभ्यास किया जाये, तब उस ही जीव की विकारी-निर्विकारी पर्यायें तो आस्रव संवर आदि तत्त्वों में समावेश हो जाती हैं। अतः जीव द्रव्य में से पर्यायांश आम्रव, बंधं संवर, निर्जरा, मोक्ष निकाल देने से, इन पर्यायों के अतिरिक्त जो भी बाकी रहता है, वह ही सात तत्त्वों का जीव तत्त्व है। अन्य शब्दों में कहा जावे तो इसी अपेक्षा से उक्त पर्यायों से रहित मात्र स्थाई भाव, अनादि अनंत एकरूप रहनेवाला भाव अर्थात् ध्रुवांशवाला जीव ही जीव तत्त्व है। क्योंकि इस जीव की पर्यायों के भेद में पांचों तत्त्वों का समावेश हो जाता है, इसप्रकार ध्रुवांश एवं पर्यायांश मिलाने पर दोनों का समूह वही जीव द्रव्य है। अतः जीव का ध्रुव एकरूप रहनेवाला भाव ही जीवतत्त्व है। उस ही में अपनेपन की स्थापना करने से जीव को शांति प्राप्त हो सकती है, क्योंकि जो तीनों काल एकरूप ही रहता है, पलटता नहीं है, मात्र उस एक का ही आश्रय करने से यानी अपनापन स्थापन कर लेने पर उपयोग को अन्य स्थान पर जाने का अवकाश ही नहीं रहता। उपयोग की पलटन का अभाव ही तो निराकुलता है, शांति है, सुख है। अतः यह ही एकमात्र परम उपादेय उत्कृष्ट ध्येय है, यही एक प्राप्तव्य होने से आत्मार्थी का जीवनाधार है।
उपरोक्त जीव तत्त्व के अतिरिक्त जितना जो कुछ भी बच गया, वह सब ही इस आत्मा के लिये अजीव तत्त्व में गर्भित हो जाता है, समस्त अजीव द्रव्य तो अजीव
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