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(सुखी होने का उपाय साथ उनका बंधन वह बंध, तथा द्रव्यकर्मों का आना रूक जाना, संवर और कमों का आत्मा से दूर हो जाना निर्जरा, तथा कर्मों के सर्वथा अभाव को मोक्ष कहा गया है। अतः इस कथन की संधि उपरोक्त कथन से कैसे बैठे?
उत्तर:- यह कथन भी एक अपेक्षा सत्य है। यह अज्ञानी आत्मा के संसारभ्रमण के कारणों में निमित्त नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराने की अपेक्षा उपचार से किया गया है। उसका यथार्थ मर्म क्या है? उस पर चर्चा
आगे करेंगे। __ जैनदर्शन का यह तो एक निर्विवाद मूलभूत सिद्धान्त है कि कोई भी द्रव्य अथवा उसकी किसी भी पर्याय में, अन्य द्रव्य अथवा अन्य द्रव्य की कोई भी पर्याय, कुछ भी नहीं कर सकती। इस सिद्धान्त को सर्वदा एवं सर्वत्र मुख्य रखकर हर एक कथन का निष्कर्ष निकालना है। अतः हमको इन सात तत्त्वों के मर्म समझने के लिये इन सातों तत्त्वों को आत्मा में ही देखना है, आत्मा में ही खोजना है, आत्मा के अंदर ही विश्लेषण करके समझना है।
१. द्रव्य, पर्याय के भेद से सात तत्त्व द्रव्य, पर्याय के माध्यम से जीव तत्त्व को समझने के पूर्व यह समझना आवश्यक है कि जीव द्रव्य में तथा जीव तत्त्व में क्या अन्तर है?
समाधानः- विकारी निर्विकारी पर्यायों सहित जीव को जीव द्रव्य कहा गया है अर्थात् द्रव्य पर्यायों के समुदायरूप प्रमाण के विषयभूत जीव को जीव द्रव्य कहते हैं। उसके यथार्थ समझ के बिना छह द्रव्यों के समुदाय रूप अनंत द्रव्यात्मक लोक में से अपने आप का भिन्न अस्तित्व ही
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