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(सुखी होने का उपाय
उपर्युक्त आगम वाक्यों से हमको हमारी समस्या का समाधान भी प्राप्त होता है, और साथ ही पुरूषार्थ भी जाग्रत होता है कि मेरी समस्या को सुलझाने का मात्र एक ही उपाय है कि निज आत्मारूपी स्वज्ञेय तत्त्व में ज्ञान में आनेवाली परस्पर विरूद्ध अनेकताओं को भेदज्ञानपूर्वक समझें ।
अतः इन सबमें स्व तथा पर की दृष्टिपूर्वक ही समझना यानी भेदज्ञान करना कार्यकारी हो सकता है। इन सब अनेकताओं को भी गंभीरता से समझने की चेष्टा करता है।
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अनेकताओं के विभागीकरण पूर्वक स्वतत्त्व की खोज
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उपर्युक्त अनेकताओं का विभागीकरण किया जावे तो वे सब मूलतः मात्र दो विभागों में बांट देने योग्य हैं। एक तो द्रव्य और दूसरा पर्याय अर्थात् एक तो स्थाई भाव (द्रव्य, सामान्य अंश स्वभाव ) दूसरा पलटता हुआ भाव (पर्याय, विकारी - निर्विकारी भाव) ये दोनों ही भाव मात्र स्व आत्म तत्त्व में ही देखने हैं एवं विश्लेषण करने योग्य हैं, क्योंकि दोनों ही भाव आत्मा के अस्तित्त्व में ही है, अतः वे आत्मा के है. और आत्मा में ही उपस्थित रहेंगे।
पर्याय के ज्ञानपूर्वक त्रिकाली ज्ञायकभाव की खोज
आत्मार्थी को फिर प्रश्न खड़ा होता है कि हमको तो आत्मा में मात्र विकारी एवं निर्विकारी भाव अर्थात् अनेक प्रकार के पलटते हुये भावों के अतिरिक्त कोई
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