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सुखी होने का उपाय) प्रकार के अन्य अस्तित्त्व ही नहीं
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भाव अर्थात् किसी भी स्थाई भाव का दीखता तो भेदज्ञान किसमें करे?
उत्तर :- यह बात सत्य है कि इस बहिर्दृष्टि अर्थात् बहिरात्मा जीव को, जिसने अनादिकाल से परज्ञेयों के साथ ही प्रेम अर्थात् मैंपने का सम्बन्ध बना रखा है, उसका ज्ञान मात्र बाह्य की ओर ही सन्मुख रहता है, कभी भी स्व की खोज करने के लिये स्व की ओर मुडा ही नहीं है। इसलिए इसके ज्ञान में स्थाई भाव, नहीं पलटनेवाला भाव अनादि काल से अर्थात् अपरिचित ही रहा है। इस ही कारण इस जीव का ज्ञान अभी तक उन पलटते हुये भावों को ही, स्व के रूप में जानता चला आ रहा है। अतः श्रद्धागुण भी उन्हीं को स्व मानता चला आ रहा है। आगम में ऐसे जीव को पर्यायमूढ कहा है। यथा
अव्यक्त
"पज्जयमूढा हि परसमया: " प्रवचनसार गाथा ९३ ।
फलस्वरूप यह पर्यायमूढ जीव पर्याय में अपनापना मानने के कारण उन भावों में अच्छे लगनेवाले भावों को रोके रखना चाहता है और बुरे लगनेवाले भावों को हटा देना चाहता है, लेकिन वे भाव तो मात्र एक समय मात्र की आयु लेकर जन्मते और मरते रहते हैं अर्थात् उत्पाद और व्यय करते रहते हैं, इसकी इच्छानुसार न तो रुकते हैं और न हटते ही है। इसी कारण यह निरंतर दुःखी दुःखी ही बना रहता है, अतः आत्मार्थी जीव का कर्तव्य है कि सत्समागम एवं आगम अभ्यास के द्वारा त्रिकाली भाव का अपने आप में अस्तित्व एवं स्वरूप समझे, क्योंकि कोई भी विषय सर्वप्रथम समझ में अर्थात् स्थूलज्ञान में आ जाने के बाद ही उस पर चिन्तन विचार,
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